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[३४ अथवा ऋषभदेवका इक्ष्वाक्वंश और पुरुकुल है। महाकवि कालिदास भी इक्ष्वाक्वंशी राजाओंके राजर्षि होनेकी साक्षी देते हैं। जैनतीर्थंकरोंमें बीस इसी वंशके थे और शेष चार अन्य हरिवंश आदिके थे । उपनिषदों में जिस आत्मविद्या और नियमोंका वर्णन है, वह भी इन्हीं इक्ष्वाक्वंशी क्षत्रियोंके प्रभावका परिणाम है। संभवतः काशी, कौशल, विदेह आदि पूर्वीय देशोंके आर्य पश्चिमके कुरुपाञ्चाल आर्योंके पहलेसे हैं । और इन प्रदेशोंमें जैनधर्मका प्रभाव म० बुद्धके पहलेसे विद्यमान था । तिसपर मनुने जिन झल्ल, मल्ल, लिच्छवि, नात, द्राविड़ आदि जातियोंको व्रात्यक्षत्रीकी संतान लिखा है, वह प्रायः सब ही जैनधर्मकी मुख्य उपासक मिलती हैं । मल्ल क्षत्रियोंकी राजधानी पावासे ही अंतिम तीर्थकर महावीरस्वामीने निर्वाण लाभ किया था। भगवान महावीर तबतक वहां पहुंचे नहीं थे, परन्तु तो भी वह उनके अनन्यभक्त थे और भगवान्को अपने नगरमें देखनेके इच्छुक थे । इससे प्रकट है कि उनमें जैनधर्मका श्रद्धान भगवान् महावीरसे पहलेका विद्यमान था । लिच्छवि क्षत्रियों में भी जैनधर्मकी विशेष मान्यता थी। वे पहलेसे जैनधर्मानुयायी थे; क्योंकि उनके प्रमुख राना चेटकको जैनग्रन्थोंने पहलेसे ही जैनधर्मका श्रद्धानी लिखा है। यही राजा भगवान महावीरके मातुल थे । नात अथवा नाथवंशमें
१-शैशवेभ्यस्तविद्यानां, यौवने विषयैशिनाम् ।
बाधके मुनिवृत्तिनां, योगेनान्ते तनुत्यजाम् ॥ २-भगवान् महावीर और म० बुद्ध का परिशिष्ट और मज्झिमनिकाय , भाग १ पृ. २ । ३-पूर्व प्र. पृ. ९८ । ४-पूर्व पृ. ६ ।