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________________ २३०] भगवान पार्श्वनाथ । महाव्रतधरान् काश्चिन्महाराष्ट्र जनान् व्यधान् । दीक्षोपदेशदानेन पार्श्वकल्पद्रुमस्तहा ॥ ८१ ॥ पार्श्वभट्टारक श्रीमान् पादन्यासेविहारतः। सर्वान सौराष्ट्र लोकाश्च पवित्रान् चिद्रधेमशं ॥ ८२ ॥ अंगे वंगे कलिंगेऽथ कर्णाटे कोकणे तथा । मेदपादं तथा लाटे लिंतिगे द्राविडे तथा ।। ८३ ॥ काश्मीरे मगधे कच्छे विदर्भ च दशाके । पंचाले पल्लवे वत्से पराभीरे मनोहरे ॥ ८४ ॥ इसायखंड देशेषु व्यक्रीणात्समहाधनी। दर्शनझानचारित्ररत्नान्मेवोतयान्यलं ॥ ८५ ॥ १५ ॥" भावार्थ-तत्व भेदको प्रदान करनेके लिये महान् प्रभू श्री पार्श्व भगवानने कौशल देशके कुशल पुरुषोंमें विहार किया और अपनी दिव्यध्यनिरूप प्रदीपसे गाढ़ मिथ्यातमकी धिज्जियां उड़ा दी। फिर संयममें तत्पर काशी देशके मनुष्योंमें धर्मचक्रका प्रभाव फैलाया। श्री मालवदेशके निवासी भव्यलोक रूप चातकोंने भी तीर्थराट्के धर्मामृतका पान किया था । अवंतीदेश जो मिथ्यानलसे तप्त था लो पार्श्वरूपी चंद्रके अमृतको पाकर शांत होगया था । गौर्नर देशमें भी जितेन्द्रिय पार्श्वसम्राटके सद्वचनोंके प्रभावसे मिथ्यात्व बिलकुल जर्नरित होगया था। महाराष्ट्र देशवासियोंमें अनेकोंने पार्श्व भगवानसे दीक्षा ग्रहणकी थी। सर्व सौराष्ट्र देशमें भी पार्श्वभट्टारकका विहार हुआ था, जिससे वहां के लोग पवित्र होगए थे। अंग, बंग, कलिंग, कर्नाटक, कौंकन, मेदपाद (मेवाड़) १-पार्श्वनाथचरित संग १५।
SR No.022599
Book TitleBhagawan Parshwanath Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1931
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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