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________________ उपसंहार । [४०५ वृक्ष-लता, सभ्य-असभ्य सब ही प्राणी समान शक्तियोंको रखनेवाले हैं-कुछ मुजायका नहीं जो उस दशामें वह हीन होरहे हैं । निमित्त मिलते ही-काललब्धिको पाते ही वे अपनी अव्यक्त शक्तिको प्रकट कर देंगे। भगवान पार्श्वनाथका जीव एक भवमें मदमत्त हाथी था; परन्तु वही संयममयी त्यागमार्गमें लगकर त्रिलोकवन्दनीय परमात्मपदको प्राप्त होगया । इसलिये किसी भी व्यक्तिको हेय समझना घृणाकी दृष्टिसे देखना अन्याय मार्गमें पग बढ़ाना है । प्रत्येक प्राणी हमारा बंधु है-ज्यों हमें जीवनप्रिय है त्यों उसे है-इसी भावको भगवान पार्श्वके निकटसे ग्रहण करके विश्वप्रेमका साम्राज्य इस जगतमें सिरन देना बिलकुल संभव है । साम्यभावका प्रचार दिगंतव्यापी उसी रोन होगा जिस रोज भगवान पार्श्वका बताया हुआ मार्ग लोगोंको दृष्टि पड़ेगा ! बाहिरी चकाचौंध में फंसे रहनेसे कार्य न सधेगा-रिवाजों और क्रियाकाण्डोंकी उपासना करनेसे कुछ हाथ न आयगा ! त्याग मार्गमें पग बढ़ाने और संयमको अपनानेमें ही संसारकी मुक्ति शेष है-इस बातको इस दिव्य चरित्रसे गांठ बांध लेने में ही कल्याण है । भगवान पार्श्वनाथने कमठके जीव तापसीको यही बात सुझाई थी। अतएव स्वाधीनताके उपासकोंके लिए भगवानका दिव्य जीवन उसी तरह महत्व पूर्ण है जिस तरह दिशाभानके लिए नाविकों के लिए ध्रुव तारा है । सरल प्राकृत जीवनसादा लिबास और सादा भोजन और हृदयमें विश्वप्रेमका वास इस धरातलको भी स्वर्गवास बना देता है, यह विश्वास ही त्राणदाता है ! सत्यके हृदयमें सदैव बना रहना ही सर्व सुखको पालेना है । भगवान पार्श्वनाथजीने यही सुखसंदेश जगतको सुनाया था इसीलिये
SR No.022599
Book TitleBhagawan Parshwanath Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1931
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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