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________________ २८० ] भगवान पार्श्वनाथ । केसे मोह शेष रह जाता है। सब ही कषायवासनाओंका नाश अथवा उपशम होनाता है, केवल सूक्ष्म संज्वलन लोभ-बहुत ही कम नामका लोभ रह जाता है, यहां भी प्रथम शुक्लध्यान है। ११. उपशान्तमोह-गुणस्थानमें मोहका उपशम होजाता है अर्थात् वह दब जाता है, निष्क्रिय होजाता है । यह भाव समस्त चारित्रमोहनीय कर्मोके उपशमसे होता है, यह भी प्रथम शुक्लध्यानका भेद है । यदि कोई मुनिजन विशेष बलवान न हुये तो वह यहांसे पतन करके चौथे अथवा दसवें गुणस्थानमें पहुंच जाते हैं । वरन् वह दृढ़तापूर्वक आठवें गुणस्थानकी क्षपकश्रेणीमें उन्नति करने लगते हैं। १२. क्षीणमोह-गुणस्थानमें मोहका अभाव होनाता है । समस्त चारित्रमोहनीय कर्मोका नाश यहां होजाता है । शुक्लध्यानका दूसरा दर्जा, जो पहलेसे अधिक विशुद्ध है, यहीं प्रगट होता है । मुनि दश गुणस्थानसे सीधे इस गुणस्थानमें आते हैं, ग्यारहवें गुणस्थानमें जानेकी जरूरत नहीं है, क्योंकि वह उपशम श्रेणीसे सम्बंधित है। १३. सयोगकेवली-गुणस्थान चार घातियाकर्म रहित जीवात्माकी शरीरसहित शुद्ध दशा है। यहां ज्ञानावर्णीय, दशनावर्णीय, अन्तराय और मोहनीय कर्मोका सर्वथा नाश होजाता है; जो आत्माके निजगुणोंके प्रगट होने में बाधक हैं । बस इनके नष्ट होनेसे आत्मा शुद्ध, बुद्ध, जीवित परमात्मा होजाता है, जिसको अर्हत कहते हैं। . पूर्ण ज्ञान, पूर्ण दर्शन और पूर्ण सुखका आत्मा यहां आधिकारी हो जाता है। सर्वज्ञदशामें वह धर्मके तत्वोंका यथावत् प्रतिपादन करता
SR No.022599
Book TitleBhagawan Parshwanath Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1931
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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