________________
भगवानका धर्मोपदेश! [२५३ विषयक उल्लेखका विवेचन हम अगाड़ी भगवान महावीरजीका संबंध प्रगट करते हुये करेंगे । किंतु अपने विषयको स्पष्ट करनेके लिये उस उद्धरणको यहीं देदेना हम आवश्यक समझते हैं, जिससे पाठकोंको तीर्थकरोंके धर्मोपदेश संबंधी हमारी प्रारंभिक व्याख्याकी सार्थकता और भी स्पष्ट हो जावेगी । उत्तराध्ययन सूत्रमें लिखा है:
"अन्नो वि संसओ मज्झं तं मे कहंसु गोयमा ॥२८॥ अचेलगो य जो धम्मो जो इमो सन्तरुत्तरो। देसिओ वद्धमाणेण पासेण य महाजसा ॥ २९ ॥ एगकज्जपवनाणं विसेसे किं नु कारणं । लिंगे दुविहे मेहावी कहं विप्पचओ न ते ॥ ३० ॥ केसिमेवं बुवाणं तु गोयमो इणमब्बवी । विन्नाणेण समागम्म धम्मसाहणमिच्छियं ।। ३१ ॥ पच्चयत्थं च लोगस्स नारभाविह विगप्पणं । जत्तत्थं गहणत्थं च लोगे लिंगपभोयणं ॥ ३२ ॥ अहभवे पइन्ना उ मोक्खसब्भूय साहणा। नाणं च दंसणं चेव चरित्तं चेव निच्छए ॥ ३३ ॥
यहां केशीश्रमण गौतम गणधरसे यह पूछते बताये गये हैं कि 'वईमानस्वामीके धर्ममें वस्त्र पहिनना मना है और पार्श्वनाथजीके धर्ममें आभ्यन्तर और बहिर वस्त्र धारण करना उचित है। दोनों ही धर्म एक उद्देश्यको लिये हुये हैं फिर यह अन्तर कैसा ?' गौतमगणधर उत्तरमें कहते हैं कि 'अपने उत्कृष्ट ज्ञानसे विषयको निर्धारित करते हुए तीर्थंकरोंने जो उचित समझा सो नियत किया। धार्मिक पुरुषोंके विविध बाह्य चिन्ह उन को वैसा समझने के लिये