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________________ २५४ ] भगवान पार्श्वनाथ | बताये गये हैं । लक्षणमय चिन्होंका उद्देश्य उनकी धार्मिक जीवनमें उपयोगिता है और उनके स्वरूपको प्रकट करना है । अब तीर्थकरों का कथन है कि सम्यक्ज्ञान, दर्शन और चारित्र ही मोक्षके कारण हैं ( न कि बाह्य चिन्ह ) । " केशीश्रमण इप उत्तरसे संतोषित होजाते हैं । इस घटना में भी ऐतिहासिक सत्यको पाना जरा कठिन है; यद्यपि आजकल इतिहासज्ञ इसी मान्यता से पार्श्वनाथजीकी शिष्य परम्पराको वस्त्रधारी प्रकट करते हैं, किन्तु हम अगाड़ी देखेंगे कि बात वास्तव में यूं नहीं है । जैन मुनियोंका भेष प्राचीन कालमें भी नग्न ही था । यहांपर जिस सरलता से इस गंभीर मतभेदका समाधान किया गया है, यह दृष्टव्य है । उस जमाने में जबकि सैद्धान्तिक वादविवादका संघर्ष चर्मसीमा पर था तब इस मतभेदका राजीनामा उस सरल ढंगसे होगया होगा जैसा कि उक्त o श्वे० सूत्र में कहा गया है, यह कुछ जीको नहीं लगता है । फिर भी जो हो, इससे हमारे कथनकी पुष्टि होती है कि समयप्रवाहका प्रभाव सामान्य धार्मिक क्रियायों में अन्तर लासक्ता है | भगवान् पार्श्वनाथ और भगवान् महावीरजीके धर्मोपदेशके मध्य जो अन्तर था वह हम ऊपर देख चुके हैं और उससे यह स्पष्ट है कि भगवान् पार्श्वनाथ द्वारा प्रतिपादित धर्म भी प्रायः वैसा ही था, जैसा कि आज हमें मिल रहा है । अस्तु; भगवान पार्श्वनाथजीने अपने धर्मोपदेश द्वारा उस समयके सैद्धान्तिक वातावरणको प्रौढ़ बना दिया था। साधरण जनता लौकिक और पारलौकिक दोनों ही बातों में पराश्रित हो रही थी । लौ केक १ जैनसूत्र (S. B. E ) भाग २ पृ० १२३.
SR No.022599
Book TitleBhagawan Parshwanath Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1931
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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