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भगवानका धर्मोपदेश !
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वटोहीको प्रिय है वैसे ही अधर्म द्रव्य जीवको स्थिर रखने में सहायता देती है । आकाश द्रव्य अनंत है और इसका कार्य जीवादि द्रव्योंको अवकाश देना है और कालद्रव्य भी एक स्वतंत्र और अखंड द्रव्य है जो पर्यायोंमें अन्तर लाने में कारणभूत है । इस प्रकार जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल - ये छह द्रव्य इस लोकको वेष्टित किये बतलाये गये हैं । प्रधानतया जीव और अजीव में ही ये सब गर्भित हैं । और संसारी आत्मा के उल्लेखसे इन दोनों द्रव्यों का बोध एक साथ होता है । अतएव भगवान् पार्श्वनाथने स्वयं जीवको ही पूर्ण स्वाधीन बतलाया था । इस लोकका नियंत्रण किसी अन्य ईश्वर आदिके हाथमें नहीं सौंपा था और न उसके द्वारा इस लोकको सिरजते और नाश होते बतलाया था | स्वयं जीवात्मा ही अपने कर्मोंसे संसार दुःखमें फंसा हुआ है और वही अपने सत्प्रयत्नों द्वारा इस दुःखबन्धनसे मुक्त होसक्ता है । परावलम्बी होने की जरूरत नहीं है। सचमुच इस प्राकृत उपदेशका असर उस समय लोगों पर खासा पड़ा था । सबहीको अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिये इस प्राकृत संदेशके अनुरूप किंचित् अपने सिद्धान्तोंको बना लेना पड़ा था और बहुतेरे लोग तो स्वयं भगवान्की शरण आगये थे, यह हम अगाड़ी देखेंगे | भगवानका उपदेश प्राकृत रूपमें यथार्थ सत्य था, वह अगाध था और एक विज्ञान था। यहांपर उसके सामान्य अवलोकन द्वारा एक झांकीभर लगाई जाती है । पूर्ण परिचय और उसका पूर्ण महत्व जानने के लिये तो अतुल जैनसैद्धान्तिकग्रंथोंका परिशीलन करना उचित है । अस्तु;