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________________ . २२४] भगवान पार्श्वनाथ । बभूव ग्रंथनिर्मुक्ताः काललब्धा प्रणेदिता ॥ १९ ॥ अनून ललनाः काश्चिद्धम॑ श्रुत्वा जिनोदितं । बभूवुश्चायिकाधीश सर्वसंगविवज्जिताः ॥२०॥ जगृहुः श्रावकाचारं तत्रैकेचिन्नृपादयः । लोकाः प्रसन्नभावेन पीताद्वाक् सुधारसा ॥२१॥२८॥" जिनराज पार्श्व भगवानके वचनामृतोंको पीकर सभामध्य स्थित प्राणियोंमेंसे कितने हीने तो सर्व परिग्रहका त्याग करके निग्रंथ मुनिका चारित्र धारण कर लिया, किन्हीं ललनाओंने उस जिन प्रणीत कल्याणकारी धर्मको सुनकर संसारी परिजनका सम्बंध त्याग दिया और वे आर्यिका होगई और बहुतेरे राजाओंने श्रावकके व्रतोंको गृहण कर लिया ! तथापि जो किसी प्रकारके भी व्रतोंको धारण करनेमें असमर्थ थे वह भगवान्के वचनोंको प्रसन्नचित्त होकर सुनने लगे । सारांशतः प्रत्येक उपस्थित प्राणीको भगवान्के सदुपदेशसे लाभ हुआ था । वह प्रफुल्ल वदन उनके गुणोंमें लीन था । ब्रह्मचर्य और अहिंसाका भाव भगवान्ने स्वयं अपने चारित्रसे प्रगट कर दिया था, जिसकी उस समय बड़ी भारी भावश्यक्ता थी। इसी कारण उनकी प्रख्याति सर्व लोकमें “जनप्रिय" ( Peoples' Favourite ) के नामसे होगई थी ! सचमुच के भमवान् जनप्रिय ही नहीं थे, बल्कि 'प्राणी मात्रके प्रिय' थे । उन्होंने विश्वात्मक ज्ञानको ( Cosmic Consciousness ) पालिया था। उनमें विश्वप्रेमके साक्षात् दर्शन होते थे ! १. श्री चंद्रकी,चार्य प्रणीत पार्श्वचरित सर्ग २८.. २. कल्पसूत्र (S BE) पृ. २४९.
SR No.022599
Book TitleBhagawan Parshwanath Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1931
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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