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________________ ज्ञान प्राप्ति और धर्म प्रचार । [ २१७ रहे हैं । मुख क्रूरताको धारण किये हुये हैं और शरीर भयानक - ता को लिये हुये है । यह दीठ पुरुष मुनिराज के समक्ष आकर गरज रहा है । वह कह रहा है कि रे मुनि! मैंने तुझसे यहांसे चले जानेको कहा. पर तू अपने पाखण्डके घमण्ड में कुछ समझता ही नहीं है। पर याद रख मुने ! मेरा नाम शेवरदेव नहीं जो मैं तुझे तेरे इस हठाग्रह के लिए अच्छी तरह न छका ढूं ! न मालूम तुझे मेरे विमानको रोक रखनेमें क्या आनन्द मिलता है। मुने ! अब भी मान जाओ और मेरे विमानके मार्गको छोड़ दो ।' किन्तु इस देवके इन बचनों का कुछ भी उत्तर उन मुनिराजसे न मिला, वे शब्द उनके कानों तक पहुंचे ही नहीं। उन मुनिराजका उपयोग तो अपने आत्माके निजरूप चिन्तवनमें लग रहा था । उनका इन बाह्य घटनाओंसे सम्बन्ध ही क्या ? शेवरदेवका गर्जना कोरा अरण्यरोदन था । उसकी धृष्टता उन शांत मुनिराजका कुछ न बिगाड़ सकी थी । यह देखकर वह बिलकुल ही आगबबूला होगया । उसके नेत्रोंसे अग्निकी ज्वालायें निकलने लगीं और वह बड़ी भयंकरता से उन मुनिगजपर घोर उपसर्ग करने लगा । अनेक सिंहों और पिशाचों का रूप बनार कर वह उन मुनिराजको त्रास देने लगा । कभी गहन जल वरसाने लगा, कभी शस्त्रोंका प्रहार उनपर करने लगा और कभी अग्निको चहुंओर प्रज्वलित करने लगा ! यह शंवरदेव एक पूर्वभवनें कमठ नामक द्विजपुत्र था और मुनिराज भगवान् पार्श्वनाथके अतिरिक्त और कोई नहीं हैं। शंबरके कमठवाले भवमें भगवान उसके भाई थे और तबही से इनका
SR No.022599
Book TitleBhagawan Parshwanath Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1931
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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