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________________ भगवान पार्श्व व महावीरजी । [ ३८३ ठीक न होगा । वस्तुतः इनके अतिरिक्त उनके चारित्रविधान में अनेक नियम साधु और उपासकोंके लिए और थे। यह कहना भी अत्युक्ति नहीं रक्खेगा कि निगन्थसमाजके समग्र चारित्रनियम पार्श्व और उनके शिष्यों के अनुसार थे । किन्तु इस चारित्रनियमके साथ एक और कठिन नैतिक नियमावली विनयवाद या शीलव्रत थी. जिसको महावीर और बुद्धने एक स्वरसे उचित ठहराया था। दूसरे शब्दों में पार्श्वके चारित्रनियम यद्यपि अच्छे थे, परन्तु उनके निर्माणक्रम और औचित्य दर्शानेके लिये सैद्धांतिक व्यवस्था की आवश्यक्ता भी; जिससे वे उछृंखल न जंचे और समाजकी सुविधा में भुला न दिये जांय । .... (उत्तराध्ययनके संवादसे स्पष्ट है कि, पार्श्वका केवल एक धार्मिक संघ था जबकि महावीरका केवल एक धार्मिक संघ ही नहीं बल्कि एक सैद्धांतिक मतका पृथक् दर्शन थे) ।" इसके अगाड़ी डॉ० बारुआ महावीरस्वामीका सैद्धांतिक गुरु गोशालको अनुमान करते हुए कहते हैं कि - "जब कालान्तर में महावीर अपना नया संघ स्थापित करने में सफल हुए और उसे कुछ अंश में आजीवकों के समान और शेषमें पार्श्वके शिष्यों के अनुसार रक्खा तो दोनों (निर्ग्रन्थ) संघों में प्रगट भेद नजर पड़ने लगा । जब कि नवीन संघकी सैद्धांतिक उत्कृष्टता पुराने संघको अन्धकार में डाल रही थी, तब उसके अनुयायियोंने किसी तरह अपने अस्तित्वको बनाये रखना आवश्यक समझा था | जाहिरा प्रतिरोध अथवा प्रति स्पर्धा इसका उपाय न था । उपाय केवल समझौते में था ! उत्तराध्ययन के सम्बादसे प्रगट है कि एक समय अवश्य ही पुराने संघके १ - दी हिस्ट्री ऑफ प्री-बुद्धिस्टिक इंडियन फिलासफी पृ० ३७७-३८० ॥
SR No.022599
Book TitleBhagawan Parshwanath Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1931
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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