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________________ ३००] भगवान पार्थनाय । जीके धर्मापदेशका प्रभाव पड़ा नजर पड़ता है। भगवान्के धर्मोपदेशको उपरांत उनकी शिष्यपरंपरा सर्वत्र प्रचलित करती रही थी, यह हम अगाड़ी देखेंगे । नचिकेतस्के इस सिद्धान्तको ही उपरान्त पूर्णकाश्यपने भी स्वीकार किया था । उसका कहना था कि जब हम स्वयं कोई कार्य करते हैं अथवा दूसरोंसे कराते हैं तो उसमें आत्मा न कुछ करता है और न दूसरेसे कराता है। आत्मा तो निष्क्रिय है। इस दशामें जो कुछ हम पाप पुण्य करते हैं, उसका संप्तर्ग आत्मासे कुछ भी नहीं है। इसीलिये सूत्रकृताङ्ग और सामन्नफलसुत्तम उसके मतकी गणना 'अक्रियावाद' में की गई है । इस सिद्धान्तमें भी भगवान् पार्श्वनाथके धर्मोपदेशकी ही झलक दृष्टि पड़ रही है। जैसे कि नचिकेतस्के सिद्धान्तसे भी व्यक्त होता हम देख चुके हैं । निश्चयमें भगवान् पार्श्वनाथने आत्माको सांसारिक क्रियाओंसे विलग एक बिशुद्ध द्रव्य माना था। जिससे पाप पुण्य का कोई संबंध नहीं था । यही भाव एकान्तसे पूर्णकाश्यपने दर्शाया है। वह स्वयं एक जैन मुनि था। श्रीदेवसेनाचार्यने (ई० ९ वी शताब्दि) अपने "दर्शनसार" ग्रन्थमें इनको मक्खाली गोशालके साथ भगवान् पार्श्वनाथनीकी शिष्यपरम्पराका एक मुनि लिखा है जो उपरान्त भृष्ट होगये थे। इनका साधु भेष भी इस बातका समर्थक है। वह भगवान पार्श्वनाथके तीर्थके जैन मुनियोंकी तरह 'अचेलकर (नग्न ) रहते थे। इसी कारण उनकी प्रख्याति अचेलक रूपमें १-पूर्व० पृ. २७९ । २-पूर्वप्रमाण। ३-सू० कृ०-१।१।१।१३। ४-दर्शनसार गाथा १७६ । ५-श्री• बुद्धि इन्डि• फिला० पृ. २७७ ।
SR No.022599
Book TitleBhagawan Parshwanath Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1931
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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