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________________ ३३६ ] भगवान् पार्श्वनाथ | है कि वह त्रिलोकबंदनीय तीर्थंकर भगवानको जन्म देकर जगतका कल्याण करती हैं। इसलिए स्त्री मात्र से घृणा करना बुद्धिमत्ता नहीं है । वह हमारे आदरकी पात्र हैं । उनकी अवहेलना करना, स्त्रियोंको पैरोंसे ठुकराना अपना अपमान करना है । बस जब सागरदत्तका हृदय इस तरह पलट गया, तो सानंद दोनों युवक युवतीका शुभ लग्न में विवाह होगया । वह सुखपूर्वक गृहस्थ जीवन व्यतीत करने लगे ! उन दिनों भारतीय व्यापार आजकलकी तरह हेय अवस्थामें नहीं था | तबके व्यापारी भी कोरे दलाल नहीं थे । सुतरां वे देश विदेश घूमकर अपने देशके व्यापारको उन्नत बनाते थे और यहांकी आर्थिक दशा फलती-फूलती देखते थे। तब यह बात भी न थी कि राजनीतिके नामसे विविध देशों में व्यापारिक प्रतिस्टद्धा चलती हो और मायावी चालोंसे निर्बल अथवा पराधीन जातियों के जीवन संकटापन्न बनाये जाते हों। साथ ही उस समयके व्यापारमें यह भी विशेषता थी कि उस समयके व्यापारी स्वयं ही देश विदेश में जाया करते थे । विदेशों में जाना तब पाप नहीं समझा जाता था और न धनिक व्यापारी स्वयं परिश्रम करना अपनी शान के खिलाफ समझते थे । इसी अनुरूप सागरदत्तने भी व्यापारके लिये विदेश जानेकी ठहराई ! वह सातवार विदेश गया, परंतु सातों ही दफे उसके जहाज समुद्रमें नष्ट होगये । लाभान्तराय कर्म उसके मार्गमें ऐसा आड़ा आरहा था कि उसे बार २ प्रयत्न करने पर भी लाभ नहीं होता था, किन्तु किसीके सर्वदा एकसे ही दिन नहीं रहते हैं। आठवीं बार उसे अपने व्यापार में खूब ही नफा
SR No.022599
Book TitleBhagawan Parshwanath Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1931
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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