SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 193
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०६ ] भगवान् पार्श्वनाथ | देश ऐसा बाकी न बचा जिसमें भगवान् के दिव्य संदेशने अपना प्रभाव दिगन्तव्यापी न बना लिया हो ! इसी अनुरूप उन भगवान के प्रभावशाली प्रमुख शिष्य हजारोंकी संख्या में थे । यह सर्व ही शिष्य गृहत्यागी और परोपकारी महापुरुष ही थे। इनसें वेष्टित होकर भगवान् पार्श्वनाथ ऐसे ही शोभित हो रहे थे जैसे तारिका मण्डल में चन्द्र मनको हरनेवाला होता है । यही नहीं कि इन शिष्यों द्वारा भगवान्की ही शोभा और गौरव बढ़ रहा हो - उनके तो गुण स्वभावतः निर्मल और प्रकर्षरूप थे । किन्तु अनेकों भव्य पुरुषों का कल्याण इनके द्वारा हुआ था। इनसे भारतका गौरव बढ़ा था । अहिंसामई सार्व प्रेम और आत्मीक भाव इन्हींके सत्प्रयनों से अपना अपना प्रखर प्रकाश यहां फैला रहे थे । विश्वप्रेमकी 1 उमंग हर हृदयमें लहर मारने लगी थी । इसमें मुख्य कारण भगवान् पार्श्वनाथजीका धर्मोपदेश ही था किन्तु उनके प्रमुख शिष्य भी उसमें प्रधान कारण थे। श्री गुणभद्राचार्यजी कहते हैं कि "भगवान् पार्श्वनाथके समवशरण में स्वयंभुवको आदि लेकर दश गणधर थे, ग्यारह अंग और चौदह पूर्वको धारण करनेवालोंकी संख्या तीनसौ पचास थी । दशहजार नौसो शिक्षक मुनि थे और एकहजार चार सौ अवधिज्ञानी थे। इसीप्रकार एकहजार केवलज्ञानी थे, एक ही हजार विक्रिया ऋद्धिको धारण करनेवाले थे । सातसौ पचास मनः पययज्ञानी थे और छहसौ वादी थे । इसप्रकार शीघ्र ही मुक्त होनेवाले सब मुनियोंकी संख्या सोलहहजार थी !" " ही महान ऋषिगण सर्वत्र विचरकर प्राणियों को अभयदान देते हुये १ - उत्तरपुराण पृ० ५८० ।
SR No.022599
Book TitleBhagawan Parshwanath Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1931
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy