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________________ २९६] भगवान पार्श्वनाथ । sntal) विद्यामें केवल उसको माना था जिससे 'अक्षर' (Undecaying) की प्राप्ति होती है । इसतरह उसने यद्यपि वेदोंको स्वीकार किया था; परन्तु ब्रह्म-धाम-परमात्मपदको पाने के लिये उनको आवश्यक नहीं समझा था और अठारह प्रकारके यज्ञों को भी सारहीन माना था। ठीक इसी तरहका विरोध भगवान् पार्श्वनाथके प्राकृत धर्मोपदेशसे स्वयं होचुका था। तिसपर भारद्वान जो यह कहता है कि "जो अपने मनमें इच्छाओंको रखता है वह अपनी इच्छाओंके अनुसार यहां-वहां जन्म धारण करता है; परन्तु जिसकी इच्छायें पूर्ण होचुकी हैं उसे अपने सच्चे 'आपा'की प्राप्ति होचुकी है । इसी जन्ममें इच्छाओंका नाश हो सक्ता है।"२ इसमें जाहिरा तौरपर वह भगवान् पार्श्वनाथजीके उपदेशको ही दुहरा रहा है और यह भगवान्के दिव्य उपदेशके प्रभावशाली होनेमें प्रकट साक्षी है! जहां पहलेके वैदिक ऋषियोंने विवाह कार्य मुख्य माना था, वहां भारद्वान ब्रह्मचर्यपर जोर देता है । यह इसी कारण कहा जाता है कि भगवान पार्श्वनाथने केवल अपने धर्मोपदेशसे ही नहीं बलिक अमली जीवनसे ब्रह्मचर्यका महत्व दिगन्तव्यापी बना दिया था। भारद्वाज एकान्तदृष्टिसे प्रतिबोध द्वारा (प्रतिबोध-विदितं) ही ब्रह्म (परमात्मा ) को जान लेना मानता था । योगको ही वह ब्रह्मको पानेके लिये आवश्यक समझता था। इस तरहपर मुण्ड श्रावक संप्रदायका निकास भगवान् पार्श्वनाथके धर्मोपदेशके प्रभाव अनुरूप हुआ प्रकट होता है । ___ डॉ० हकमी स्वतंत्ररूपसे इसी निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि __ -पूर्व० पृ० २५४ २-पूर्व पृ० २५५ ।
SR No.022599
Book TitleBhagawan Parshwanath Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1931
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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