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________________ २८६] भगवान पार्श्वनाथ । ___ भाव यही है कि जटेल आदि कुतापस जो थे वह अपने पञ्चाग्नि आदिरूप कायक्लेश एवं अन्य धार्मिक क्रियायोंको निष्फल होते देखकर भगवान् पार्धनाथकी शरण में आये थे। भगवान के प्राकृत संदेश में शांति और सुख का स्पष्ट विधान था । वह युक्तिसे प्रत्यक्ष बुद्धिग्राह्य था, उसको पाकर अपने एकांत पक्षमें विधर्मियों का विश्वास खो बैठना स्वाभाविक ही था ! वहां हठपक्ष तो था नहीं, सरलता थी, सत्य को पानेकी अभिलाषा थी। यही कारण था कि बहुजन भगवानकी शरणमें आये थे। ईसाकी आठनीं शताब्दिके विद्वान महर्षि श्री गुणभद्राचार्यनी भी अपने " उत्तरपुराण " में कहते हैं कि: 'तदा केवलपूनां च सुरेंद्रा निरर्तयन् । संबरोप्यात्तकालादि लब्धिः शममुपागमत् ॥१४५।। प्रापत्सम्यक्त्वसंशुद्धिं दृष्ट्वा तद्वनवासिनः। तापसास्त्यक्तमिथ्यात्वाः शतानां सप्त संयमं ॥१४६॥ गृहात्वा शुद्धसम्यक्त्वाः पार्श्वनाथं कृतादराः। सर्वे प्रदक्षिणीकृस प्रणेमुः पादयोर्द्वयोः ॥ १४७ ॥ अर्थात् जिस समय भगवान् पार्धनाथको केवलज्ञान की प्राप्ति होगई थी तो उसी समय इंद्रादि देवोंने आकर केवलज्ञानकी पूजा की और वह संवर नामका ज्योतिषीदेव भी कालादि लब्धिके प्राप्त होनेसे अत्यन्त शांत होगया। उसने शुद्ध सम्यग्दर्शन धारण किया तथा उसे देखकर उस वनमें रहनेवाले सातसौ तपस्वियोंने मिथ्यात्व छोड़कर संयम धारण किया, शुद्ध सम्यग्दर्शन स्वीकार
SR No.022599
Book TitleBhagawan Parshwanath Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1931
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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