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________________ धर्मोपदेशका प्रभाव । न्तु इनके बल हिंसावादकी पुष्टि करना अनुचित क्रिया है । इसी कारण इन विधर्मियों को 'तत्वार्थराजवार्तिक में प्राणिवधमें पापबंधका कारण नहीं है', इस मान्यतावाला बतलाया है।' (न हि प्राणिवधः पापहेतुर्धर्मसाधनत्वमापत्तुर्महति ॥ १२ ॥ १।८।) इस प्रकार कात्यायनके समयमें भी भगवान पार्श्वनाथके धर्मका प्रभाव कार्यकारी था, यह स्पष्ट है । उनके उपदेशसे वातावरण क्षुभित होगया था इसमें संशय नहीं और यह विदित ही है कि उनकी शिष्यपरम्परा म० बुद्धके समान विद्यमान थी, जैसे कि हम देखेंगे। उसी समयके एक अन्य मतप्रवर्तक अजित केशकम्बलि भी भगवान् पार्श्वनाथके धर्मोपदेशके प्रभावसे अछूते नहीं बचे थे; यह उनके सिद्धान्तोंसे स्पष्ट है। वह वैदिक क्रियाकाण्डके कट्टर विरोधी थे और पुनर्जन्म सिद्धान्तको अस्वीकार करते थे । यज्ञ, बलिदान, श्राद्ध आदिको वह अनावश्यक बतलाते थे। कहते थे कि यदि मृतक पुरुषोंको भोजन पहुंचाना संभव है तो फिर परदेश गये हुये व्यक्तिको भी उसी तरह भोजन पहुंच जाना चाहिए, परन्तु यह होता नहीं, इसलिए श्राद्ध आदि क्रियाकाण्ड वृथा हैं। साथ ही वह इंद्रियनिग्रह और ध्यानको भी आवश्यक नहीं मानता था । वर्तमानको छोड़कर भविष्यसुखकी आशा करनेपर वह विश्वास नहीं करता था । लोकको वह पृथ्वी, जल, अमि और वायुका समुदाय मानता था और आत्माको पुद्गलका कीमियाई ढंगका परिणाम बतलाता था । इन चारों वस्तुओंके विघटते ही आत्मा भी विघट जाता है, यह वह कहता था। इसीलिये वह जीवात्मा और शरीरको एक १-राजवार्तिक पृ० २९४ । २-प्री० बुद्धि० इन्डि० फिला• पृ० २८९ ।
SR No.022599
Book TitleBhagawan Parshwanath Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1931
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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