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________________ २७६ ] भगवान पार्श्वनाथ । राका त्यागी होकर यथाशक्ति पांच अणुव्रतोंको पालन करनेका प्रयत्न करता है । दूसरी व्रतपतिमामें उसे अहिंसादि पांच अणुव्रतोंका पूर्ण रीतिसे पालन करना होता है। साथ ही ३ गुणव्रत और ४ शिक्षाव्रतोंको भी वह पालता है । दूसरे शब्दोंमें वह प्रति दिवस नियमित रीतिसे अपने आनेजानेके क्षेत्रकी दिशाओं और दूरीका प्रमाण करलेता है, वृथाका बकवाद अथवा पापमय कार्योंका विचार और उनको करनेसे दूर रहता है । शिक्षाव्रतोंमें वह प्रातः, दिवस अपने खानपानके पदार्थोंको नियमित कर लेता है, प्रातः, मध्यान्ह और सायंकालको भगवानकी पूजन करता है, पर्वके दिनोंमें उपवाप्त करता है और आहार, औषधि, विद्या और अभयदान देता है। इसतरह वह इन व्रतोंका पूर्णतः पालन करके अपने त्यागभावको उत्तरोत्तर बढ़ाता जाता है, और इसतरह उन्नति करते हुये वह अपने में समभावोंको अर्थात् सब वस्तुओंमें साम्यभाव रखनेका प्रयत्न करता है । इसके लिये वह नियमित रीतिसे प्रतिदिन सबेरे, दुपहर और शामको होशियारीके साथ ध्यान करनेका अभ्यास करता है । सामायिककी दशामें वह अपने परिणामोंको समतारूप बनाने और अपने आत्मगुणोंके चिन्तवनमें लगाता है । सामायिक पाठका प्रथम चरण ही उसके भावको स्पष्ट करता है । जैसे'नित देव ! मेरी आतमा धारण करे इस नेमको, मैत्री करे सब प्राणियोंसे, गुणिजनोंसे प्रेमको। उनपर दया करती रहे जो दुःख-ग्राह-ग्रहीत हैं, उनसे उदासी ही रहे जो धर्मके विपरीत हैं। यह तीसरी सामायिक प्रतिमा है। चौथी प्रोषधोपवास
SR No.022599
Book TitleBhagawan Parshwanath Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1931
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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