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________________ [४ ] रखते थे । यह उपरोल्लिखित प्रॉ० सा० का अनुमान है । इसके अतिरिक्त हीन, ज्येष्ठ, गृहपति, अनुचनः, स्थिवरः, समनिचमेद्रः, निंदितः आदि शब्द जो व्रात्योंके सम्बन्धमें व्यवहृत हुये हैं; इनका भी खुलासा कर देना आवश्यक है । हीन और ज्येष्ठसे तो भाव संभवतः अणुव्रतों और महाव्रतोंसे होगा और गृहपति गृहस्थ श्रावकोंका आचार्य या नेता होता है । इसे विशेष धनवान और विद्वान् बताया है । इस शब्दका प्रयोग जैन शास्त्रों, जैसे श्वे० उवास्गदशाओंमें हुआ मिलता है । बाकीके तीन शब्दोंका व्यवहार ज्येष्ठ व्रात्योंके प्रति हुआ है । इनका अर्थ लगाने में सब ही टीकाकार भ्रांतिसे बच न सके हैं, यह बात प्रॉ० चक्रवर्ती सा० बतलाते हैं। वह अगाड़ी कहते हैं कि 'अनुचनः' का अर्थ तो हो टीका कारोंने ठीक लगाया है, जिसका मतलब ज्येष्ठ व्रात्य दिगम्बर एक धर्मशास्त्र ज्ञाता विद्वान्से है। स्थजैन मुनि थे। विर शब्द भी साफ है जिसके अर्थ गुरुसे हैं और इसका व्यवहार जैनशास्त्रोंमें खूब हुआ मिलता है । जैन गुरुओंकी शिष्य परम्परा 'स्थिविरावली' नामसे प्रख्यात है । जिन सहस्रनाममें भी इसका प्रयोग हुआ मिलता है। किन्तु वैदिक टीकाकारोंने इसे भी नहीं समझ पाया है, क्योंकि यह समनिचमेद्र शब्दके साथ प्रयोजित हुआ है। इस शब्दका शब्दार्थ 'पुरुषलिंगसे रहित' होनेका है । टीकाकार भी यही कहते हैं; यथाः-"अपेतप्रजननाः ।" भला व्रात्योंके लिये ऐसा घृणित वक्तव्य क्यों घोषित किया गया ? सामान्यतः जो पुरुष सामाजिक रीतिके अनुसार सवस्त्र होगा, तो सचमुच उसके प्रति
SR No.022599
Book TitleBhagawan Parshwanath Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1931
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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