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________________ . ग्रन्थकारका परिचय। [ ४११ ग्यसे उनका गत चैत्रमासमें असमयमें ही स्वर्गवास होगया। ला० गिरधारीलाल नीके एकमात्र पुत्र श्री ला० प्रागदासनी हैं। लेखकके पूज्य पिता यही हैं, पुराने फर्मके फेल होनेके बाद पिताजी अपना एक स्वतंत्र 'बेन्किन्गर्म' स्थापित करनेमें सफल हुये थे । तबसे यह फर्म बराबर चल रहा है, चूंकि इसका सम्बन्ध सरकारी फौनसे है; इसलिये भारतके विविध प्रान्तोंमें फर्मको जाना पड़ता रहा है। ऐसे ही जिस समय पिताजी सीमा प्रान्तकी छावनी कैम्प वेलपुरमें थे, उस समय मिती वैशाख शुक्ला त्रयोदशी बुधवार संवत् १९५८को मेरे इस रूपका जन्म हुआ था। माताजी धार्मिक चित्तवृत्तिकी धारक थीं, यद्यपि मुझे बचपनमें जैनधर्मके साधक साधनों का संसर्ग प्राप्त नहीं हुआ; परन्तु मातानीकी धार्मिकवृत्तिने मेरे हृदय में उसका प्रतिबिम्ब ज्योंका त्यों अंकित कर दिया। रातको जब मैं पहार तारोंके विषयमें प्रश्न करता तो वह समाधान करती हुई मुझसे यह व हलवाके सुला देतीं कि 'जिनवर तारे मन भर कूचे, जहां नीव तहां तीन किनारे । जा मंडलीमें उच्चरे ताहि श्री पार्श्वनाथकी आनि, तब इसका मतलब कुछ समझमें नहीं आता; किन्तु जब आज सोचता हूं तो इस सरल उक्तिमें जैनधर्मकी खास बातों का उपदेश भरा हुआ पाता हूं। जिनेन्द्र भगवान ही तारे हैं, उन्हींको मनमें स्थापित करके ताला बंद करदो । किसी अन्यको हृदयके उच्चापन पर मत बैठ'ओ, संसारसागरमें भटकते हुये इस प्राणीके लिये सिर्फ 'तीन'-रत्नत्रय-किनारे हैं, उन्हें नहीं भूलना चाहिये। श्री पाचनाथके शासनकी छायामें सब आनन्दसे कालक्षेप करें ! इस सरल ढंगसे गहन उपदेश भला और कैसे हृदयंगम हो सक्ता ? इसीका
SR No.022599
Book TitleBhagawan Parshwanath Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1931
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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