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________________ २२६ ] भगवान पार्श्वनाथ | इस विहार में भगवान् बिना किसी भेद भावके सब ही जीवोंको समान रूपसे धर्मामृत का पान कराते थे । उनका विहार देवोपनीत समवशरणकी विभूति सहित होता था । जहां जहां भगवान पहुंच जाते थे वहां वहां इन्द्रकी आज्ञासे कुवेर समवशरण की रचना कर देता था । जैन शास्त्रों का कहना है कि तीर्थंकर भगवानका प्रस्थान साधारण मनुष्योंकी तरह नहीं होता है । उनके निकटसे अशुभ रूप चार घातिया कर्मोंका अभाव होगया था । इसलिये उनका परम औदारिक शरीर इतना पवित्र और हमवजन होगया था कि वह पृथ्वी से ऊपर बना रहता था । उसके लिये पृथ्वीका सहारा लेने की आवश्यक्ता नहीं रही थी। इसमें आश्चर्य करनेके लिए बहुत कम स्थान है; क्यों के योगसाधनके बल किंचित् कालके लिये छदमस्थ मनुष्य भी अधर आकाशमें तिष्ठते बतलाये गये हैं । फिर जो महापुरुष साक्षात् योगरूप होगया है, उसके लिये आकाश ही आसन होजाय तो कुछ भी अचरजकी बात नहीं है । योगशास्त्रोंके पारंगत विद्वान् इस क्रियामें कुछ भी अलौकिकता नहीं पायेंगे । वास्तमें इसमें कोई अलौकिकता है भी नहीं; यद्यपि यह ठीक है कि आजकल ऐसे योगी पुरुषोंके दर्शन पा लेना यही नहीं योग शास्त्रों में बताये हुये सामान्य नियमों के पालन में पाण्डित्यप्राप्त मनुष्य ही मुश्किल से देखने में मिलते हैं । इसलिये आजकल के लोग इन बातोंकी गिनती 'करिश्मो' अथवा 'अलौकिक' -बातों में करने लगते हैं और ऐसी बातें उनके गले के नीचे सहसा नहीं उतरती हैं ! किन्तु वह भूलते हैं और आत्माकी अनन्तशक्ति में अपना अविश्वास प्रकट करते हैं । आत्मामें सब कुछ कर असंभव होगया है । I
SR No.022599
Book TitleBhagawan Parshwanath Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1931
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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