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भगवान् पार्श्वनाथ |
अहिच्छत्रको जाते हैं-वहांसे पुण्यकी पोट बांधलाते हैं । अस्तु; इसप्रकार भगवान् पार्श्वनाथजीके तीर्थमें हुये एवं उनसे सम्बन्धित पुरुषोंके दिव्य जीवनाख्यानोंका परिचय हम पालेते हैं । सचमुच उनके निर्वाणलाभ कर चुकनेके उपरान्त तक हुये प्रधान पुरुषोंके दर्शन हम कर लेते हैं । अब अगाड़ी केवल इन प्रभुका निर्वाण कल्याणक और उनका भगवान महावीरजी से सम्बंध देखना ही शेष है ।
B9998CCE ( २४ ) भगवानका निर्वाणलाभ ! "कुर्वाणः पंचभिमासैर्विरही कृतसप्ततिं । संवत्सराणां मासं स संहृत्य विहतिक्रियां ।। १५५ ॥ षट्त्रिंशन्मुनिभिः सार्द्धं प्रतिमायोगभास्थितः । श्रावणे मासि सप्तम्यां सितपक्षे दिनादि मे ।। १५६ ॥ भागे विशाख नक्षत्रे ध्यानद्वयसमाश्रयात् । गुणस्थानद्वये स्थित्वा सम्मेदाचल मस्तके || १५७ ॥ तत्कालोचितकार्याणि वतयित्वा यथाक्रमं । निःशेषकर्मीर्नाशान्निर्वाणं निश्चलं स्थितः ॥ १५८ ॥ - श्री गुणभद्राचार्य | मन्द मन्द पवन चल रही थी, नीलाकाश सुहावने बादलोंसे मण्डित होरहा था । अरुण सूर्योदय अपनी मन्दमुस्कान छोड़ते हुये एक झांकी भर लगा रहे थे; मानो भगवान पार्श्वनाथजीके अतुल विभवकों देखकर वह अपना मुंह ही छिपा रहे हों ! पावस ऋतु थी । श्रावणका महीना था । वृक्ष - लता, पशु-पक्षी और नर-नारी सबके