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भगवान पार्श्व व महावीरजी ।
[ ४०१ इससे किञ्चित उपरान्त ही बौद्ध शास्त्र उस रूप में संकलित किये गये थे, जैसे कि अब मिलते हैं । इसी कारण उन्होंने साधारणतः भगवान् महावीरके निर्वाण बाद संघभेद बतलानेका भाव उस सम यी घटनाको लक्ष्य करके लिखा था। बौद्धशास्त्रोंमें यही एक उदाहरण नहीं है जिसमें यह भ्रमात्मक बात हो प्रत्युत और भी उदाहरण हैं जिसमें अजातशत्रुको उसके समयके उपरांतकी घटनाओंसे सम्बंधित बतलाया गया है। इससे बौद्धग्रन्थोंके कथनका भाव यही है कि भगवान् महावीरजीके उपरान्त एक काफी समयके बाद संघ - भेदकी नींव पड़ी थी । कमसेकम भद्रबाहु श्रुतकेवली के समयतक तो संभवतः संपूर्ण संघ एक था । किन्हीं अजैन विद्वानोंका भी यही मत है ।' अस्तु;
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि भगवान् पार्श्वनाथजी और महावीरस्वामीका पारस्परिक सम्बंध क्या था ? दोनों ही महापुरुष एक समान तीर्थंकर थे और उनकी शिक्षा भी प्रायः एक समान थी; किन्तु उनके संघमें चारित्र नियमोंको पालने में किंचित अन्तर अव - श्य था । और यह अन्तर मूलमें कुछ नहीं था ! जैन धर्मकी, यह खासियत रही है कि वह प्राचीन से प्राचीनतर कालसे अपने सिद्धान्तोंको वैसे ही प्रगट करता चला आरहा है, जैसे कि वे आज उपलब्ध हैं ।" यद्यपि उसके बाह्यरूप क्रियाकाण्ड आदिमें अवश्य ही सामयिक प्रभाव पड़ा प्रगट होता है ।
१ - कैम्ब्रिज हिस्ट्री आफ इन्डिया भाग १ पृ० १६५ । २ - पूर्व ० पु० १६९ ।