Book Title: Bhagawan Parshwanath Part 02
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 287
________________ ४००] भगवान् पार्धनाय । यद्यपि यह ठीक है कि दोनों संघोंमें चारित्रभेद केवल आचरणमें लानेकी दृष्टिसे अवश्य था; जैसे कि जैन शास्त्रोंसे प्रगट है। • सर्व अंतिम जो यह कहा गया है कि दोनों संघोंका मेल, यद्यपि समयकी मांगकी वजहसे जाहिरा होगया था, जिससे पार्श्वसंघको वीर-संघका सिद्धांत पानेका लाभ हुआ था; परन्तु वह ज्यादा दिन न टिका और महावीरस्वामीके निर्वाण उपरान्त पुनः भेद होगया ! खेद है कि यहां भी हम डा० बारूआके साथ सहमत नहीं हो सक्ते । यह सत्य है कि भगवान महावीरजीके कैवल्यपद प्राप्त करने और संघ स्थापित करने के साथ ही पार्श्वसंघके ऋषि आदि सदस्य भगवान्के संघमें सम्मिलित हो गये थे; किन्तु ऊपरके कथनको देखते हुये यह नहीं स्वीकार किया जासक्ता कि उनको इससे सिद्धान्तवाद (Philosophy) पानेका लाभ हुआ था ! साथ ही बौद्धशास्त्रों के कथनसे यह भाव निकालना कि भगवान् महावीरजीके निर्वाण होते ही वीरसंघ दो भागोंमें विभक्त हो गया था, ठीक नहीं प्रतीत होता ! यह दिगंबर और श्वेताम्बर दोनों आनायोंके ग्रंथोंके विरुद्ध है। भगवान महावीरजीके उपरान्त जबतक उनके केवलज्ञानी शिष्य, जिनमें सर्वअंतिम जम्बूस्वामी थे, मौजूद रहे थे, तबतक तो किसी तरहका भी कोई प्रभेद पड़ा दृष्टि नहीं पड़ता है, क्योंकि दोनों आम्नायोंमें केवलज्ञानियोंके सम्बन्धमें कुछ भी अन्तर नहीं है। आपसी प्रभेदकी जड़ श्रुतकेवलियोंके जमानेसे और बहुतकरके भद्रबाहुजीके जमानेसे ही पड़ी प्रतीत होती है । इस समय निग्रंथसंघकी ठीक वही दशा होरही थी जो बौद्धशास्त्रों में क्तलाई गई है। और यह विदित ही है कि इस समय अथवा

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