Book Title: Bhagawan Parshwanath Part 02
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 289
________________ ४०२] भगवान पार्श्वनाथ । (२६) उपसंहार। 'जयतस्तव पार्श्वस्य श्रीमद्भर्तुः पदद्वयम् । क्षयं दुस्तरपापस्य क्षयं कर्तुं ददज्जयम् ।' -श्री समन्तभद्राचार्यः । हे प्रभो पार्श्वनाथ ! 'आप मोहादिक सम्पूर्ण अंतरंग शत्रुओंको जीतनेवाले हो, सबके स्वामी हो । हे देव ! आपके चरणकमल अतिशय शोभायमान हैं। सर्वत्र विजय देनेवाले हैं। अतिशय गहन प.पोंको भी नाश करनेके लिये समर्थ हैं । हे भगवन् ! आपके ऐसे चरणकमल मेरा अंधकार दूर करो।' अवश्य ही त्रिभुवनवन्दनीय भगवान्की पवित्र संस्तुति भक्तजनके अज्ञानतमको नाश करनेमें मूल कारण है । पतितपावन प्रभूके पाद-पद्मोंका भ्रमर बन जानेसे पाप-पङ्कमें फंसा रहना बिल्कुल असंभव है । प्रभूकी भक्ति प्रभूकी विनय परिणामोंमें वह विशुद्धता लाती है कि स्वयमेव ही सब संकट नष्ट होनाते हैं और भक्तवत्सल प्राणी आनन्दसरमें गोते लगाता है । भगवान् पार्श्वनाथ एक ऐसे ही पतितपावन उपासनीय परमात्मा थे। उन्होंने मोहमायाको अपनेसे दूर भगा दिया था । क्रोध, मान, माया लोभ आदि मानवी कमजोरियोंको उनने पास फटकने नहीं दिया था ! बाहिरी शान-गुमानके कारणोंको तो वह प्रभू पहले ही नष्ट कर चुके थे। प्राकृतरूपमें वे विवसन होकर निर्भीक विचरण करते थे । जैसे बाहिर थे, वैसे भीतर थे। न नाहिरा देखनेमें कोई शारीरिक दोष था और वैसे ही न मनमें कोई मैल था, वे खूबसूरत अनूठे थे । प्रकृतिके अञ्चलमें ज्यों

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