Book Title: Bhagawan Parshwanath Part 02
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 294
________________ ग्रन्थकारका परिचय। [४०७ अन्धकारका परिचय । संसारमें भटकते हुए क्षुद्र जीवका परिचय ही क्या ? जिस प्रकार और सब जीव हैं वैसा ही यह प्राणी है ! एक ही निगोदरूषी जननीके उदरसे जन्मे हुये भाइयोंमें अन्तर ही क्या ? उनमें परस्थर विशेषता हो ही क्या सक्ती है ? फिर मेरा और तेरा परिचय क्या ? पुद्गलके संसर्गमें आया हुआ यह जीव इस अनन्त संसारमें नानारूप रखता है, उन विविध रूपों के फेर में पड़ना बहुरुपियेके तमाशेके दृश्यसे कुछ अधिक महत्व नहीं रखता ! परन्तु संसारका अहंकार उसने देढब उलझा हुआ है वह उसके सारासारको देखने नहीं देता। उसे ननर ही नहीं पड़ता कि वह तो अनन्तदर्शन, अनंतज्ञान, अनन्तवीर्य और अनन्तसुखरूप है, सिद्ध है, शुद्ध है, परम बुद्ध है । सचमुच मेरी अनन्तगुणमई समृद्धि है। देखनेमें देह परिमाण भले ही हूं, परन्तु निश्चय जानो मैं असंख्य प्रदेशी हूं और अमूर्तिक हूं, अनन्तरूप हूं, परमानन्द हूं, सहज हूं, नित्य हूं, चिदानन्द हूं, मेरा चेतना लक्षण है, मैं चैतन्य हूं अखण्ड हूं और लोकालोकका प्रकाशक हूं। रत्नत्रय मेरे अंगकी शोभा बढ़ाते हैं । सहन स्वरूपको दर्शाकर मैं सिद्ध समान देदीप्यमान हूं । संसारकी गगद्वेष कालिमासे रहित शुभाशुभ कर्मकलंकसे विहीन निष्कलंक हूं, समन्तभद्र हू शास्वतानन्द हूं, पर हूं कहां ? अहंकारका पर्दा फटे और 'सोऽ' की भूमि प्रगट हो तब कहीं जो हूं सो दृष्टि पडूं। आज तो दुनियां मुझे कामताप्रसाद कहकर पुकारती है। मनुष्य जातिमें मेरी गणना होती है, जैनधर्मका मुझमें अनुराग प्रकट होता है । मैं भी जैनी बननेके प्रयत्नमें हूं।

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