Book Title: Bhagawan Parshwanath Part 02
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 280
________________ भगवान पार्श्व व महावीरजी। [.३९३ जीके दिगम्बर संघका इतना अधिक प्रभाव बढ़ गया था कि प्राचीन संघको उनसे अलग रहकर अपना अस्तित्व बनाये रखना कठिन था, तो वह भी ठीक नहीं विदित होता, क्योंकि यह तो ज्ञात ही है कि भगवान पार्श्वनाथनीका संघ विशेषर तिमे व्यवस्थित ढंगपर था और उस समय बौद्धादि वस्त्रधारी साधु-संपाय मौजूद ही थे। जिस प्रकार यह बौद्धादि वस्त्रबरी संप्रदाय अपने म्वाध'न अस्तित्वको बनाये रखने में सफल रहे थे, वैसे प्राचीन निग्रंथपंध भी रह सक्ता था। उसके पास अच्छे दर्जेका सिद्धान्त तो था ही, इसलिए ऐसा कोई कारण नहीं था, जिसकी बनहसे उपका नूनमध मिल जाना अनिवार्य था ! इसके साथ ही यह भुल या नहीं जा सक्ता है कि 'उत्तराध्ययन सूत्र' किंवा सर्व ही श्वेताम्बर आगमग्रन्थ सर्वथा एक ही समय और एक ही व्यक्ति द्वारा संकलित नह हुए थे। तथापि उनमें बौद्ध ग्रन्थों का प्रभाव पड़ा व्यक्त होता है । और निप्त समयमें वह क्षमाश्रमग द्वारा लिपिबद्ध फेिये जा'हे थे, उसके किञ्चित पहले एक केशी नामक आचार्य उत्तर भातमें होचुके थे, जो मगधके राजा संग्रामके पुरोहित और बुद्धघोष पांचवी शताब्दि ई०) के पिता थे। यदि यह केशी उत्तर भारतमें बहु प्रख्यात रहे हो और इनका जैन सम्पर्क रहा हो तो कहना होगा कि इन्हीं केशीके आधारसे उक्त आख्यान रचा गया हो तो कोई आश्चर्य नहीं ! इतना तो स्पष्ट ही है कि केशी नामका एक व्यक्ति देव १-जैनसूत्र (S B. E. ) की भूमिका प्री बुदेिस्टिक इन्डियन फिलासफी पृ० ३७६ । २-जालचारपेन्टियरके 'उधान की भुमेका और "दिगंबर जैन" वर्ष १९-२०में प्रकट हमारा ले ।। ३-लाइफ एण्ड वर्क आफ बुदघोष पृ० २१ ।

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