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भगवान पार्श्व व महावीरजी । [ ३९७ लाचारी मुनियों द्वारा इस संप्रदायकी उत्पत्ति मानी थी और फिर जिनचन्द्र द्वारा पूर्णतः श्वेताम्बर भेद हुआ उनने कहा है । इस मूर्तिके स्वरूपसे उनका कथन प्रमाणीक ठहरता है । हमने इसके पहले भी अर्धफलक' संप्रदायका अस्तित्व स्वीकार किया था; यद्यपि पं० नाथूरामजी प्रेमीने इसे एक कल्पना ही खयाल किया था । और यह प्रायः सर्वमान्य है कि दिगम्बर - श्वेताम्बर भेदकी जड़ यद्यपि द्रवहु श्रुतकेबलीके निकटवर्ती कालसे ही पड़ गई थी, परन्तु उसका पूर्ण विच्छेद ईसवीसन् ८० या ८२ में हुआ था' । इसके मध्य काल में अवश्य ही अर्धफालक शिथिलाचारी श्रमणसंघ रहा प्रगट होता है, जो वैसे तो प्राचीनरूपमें अर्थात् नग्नवेषमें रहन थे; परंतु लज्जा निवारणके लिये खंडवस्त्र रखता था । इस दशा में दिगंबर जैन कथन विश्वास न करनेके योग्य नहीं ठहरता है। अतएव यह स्पष्ट होनाता है कि श्वेताम्बर संप्रदायको भी पहले नग्न स्वीकार था । यही कारण है कि मथुराके कंकाली टीला से निकलीं हुईं पूर्ण नग्न तीर्थंकर मूर्तियों पर इत्रे० आम्नायके आचार्यों का नाम अंकित है । इस प्रकार प्राचीन पुरातत्वसे भी श्री पासाथ एवं अन्य जैन तीर्थंकरों का नग्नवेष में रहना प्रमाणित है। सिर रामकृष्ण गोपाल भांडारकर महोदय ने भी
यह प्रगट किया था कि "प्राचीन जैन मूर्तियां प्रायः नग्न ही मिलतीं हैं। गुफा मंदिरों में भी दिगंबर प्रतिमायें मिलती हैं ।"
१- कैम्बिज हिस्टी ऑफ इन्डिया भाग १ पृ० १६५ इन्डियन स्टडीज भाग १ ० २५ इत्यादि । २ - जैनहितैषी पृ० २९१-२९२ । ३ - पूर्व० भाग ५ ० २५ ।
और साउथ
भाग १३