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३९४] भगवान पार्श्वनाथ । .. र्षिगणि क्षमाश्रमणके कुछ पहले अवश्य हो चुका था और प्राचीन एवं नवीन निग्रंथसंघ किंचित नाममात्रका भेद था। अस्तु, जो हो उसको छोड़कर थोड़ी देरको यह मान लिया जाय कि प्राचीन अर्थात पार्श्वसंघमें वस्त्र धारण करना जायन था-दूसरे शब्दोंमें तपश्चर्याकी कठिनाई कम थी-तो फिर बुद्धको अपना एक नूनन संघ स्थापित करने की आवश्यक्ता शेष नहीं रहती; क्यों के बुद्धने तप. चरणकी कठिनाई और ब्राह्मणों के क्रियाकाण्डके खिलाफ अपना मत स्थापित किया था, सो यह दोनों बातें प्रायः उपरोक्त मानतासे उनको प्राचीन निग्रंथसंघमें मिलती ही थीं। इससे भी यही प्रकट होता है कि प्राचीन जैन संघमें भी नग्नवेष ही मोक्ष-लिङ्ग माना गया था। म० बुद्धके पहलेसे ही नग्नवेष आदरकी दृष्टिसे देखा जाता था. यह बात पूर्णकाश्यपके नग्नसाधु होनेके कथान कसे स्पष्ट है । वह नग्न इसीलिये हुआ था कि उसका आदर जनसाधारणमें अधिक होगा। अब यदि भगवान् पार्श्वनाथके द्वारा नग्नवेषका प्रचार नहीं होचुका था, तो फिर नग्नवेषका इतना आदर उस समय कैसे बढ़ गया था ? यह प्रश्न अगाड़ी आता है। हिन्दुओंके उपनिषद कालीन वानप्रस्थऋषि इस वेषके कायल नहीं थे और यह भी प्रगट नहीं हैं कि मक्खलिगोशालके आनीविक पूर्वागामी नग्न रहते थे; प्रत्युत उनको तो 'वानप्रस्थ ढंग' का साधु लिखा है। मग्नवेष, पूर्वोके आठ निमित आदि सिद्धान्त आजीविक संप्रदायमें जैन धर्मसे लिये हुये प्रमाणित होते हैं। इस कारण अन्य कोई
१-भगवान महावीर और म० बुद्ध पृ० ८२-८३ । २-इन्डियन एन्टीक्वेरी भाग ९ पृ. १६२ । ३-आजीविक्स भाग १ पृ. ३।.