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भगवान पार्श्व व महावीरजी ।
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विवेचन सैद्धांतिक ढंगसे किया है। शीलव्रत नियम भी उनके खास थे । प्रो० हीस डे विड्स जो प्रो० जैकोबीको चातुर्याम नियमसे पार्श्वनाथजीके चार व्रतोंका भाव ग्रहण कहते बतलाते हैं वह गलत है । और (५) पार्श्वनाथजीके और महाबीरस्वामीके संघों में परस्पर 1 प्रगट भेद था, जिसके कारण यद्यपि पहले दोनों संघ अलग थे; परन्तु उपरांत वे एक होगये । आखिर महावीर स्वामी के निर्वाणके. उपरांत ही वह फिर दो भागों में विभक्त होगये; जैसे कि बौद्धोंके ग्रन्थोंसे प्रगट है ।
अतएव आइये पाठकगण ! इन पांच बातोंके औचित्यपर भी एक दृष्टि डाल लें । उपरोक्त कथन में भी पार्श्वनाथजीको महावीर - स्वामीका पूर्वागामी तो स्वीकार किया गया है, परन्तु उनको एक सामान्य साधु बतलाया है, जिनको अपने संघकी व्यवस्था और चारित्र नियमोंसे ही मतलब था । सिद्धांतवाद (Philosophy) न उनके लिये आवश्यक था और न वह उनके निकट मौजूद था। कोई भी ऐसा प्रमाण उपलब्ध नहीं है, जिससे यह सिद्ध किया जा सके कि पार्श्वनाथस्वामी एक सैद्धांतिक वक्ता अथवा तत्त्ववेत्ताः (Philosopher ) थे; किन्तु इसके साथ ही ऐसा भी कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है जो जैनियोंकी मान्यताको गलत ठहराकर भगवान् पार्श्वनाथ के निकट सिद्धांतवाद नहीं था, यह प्रगट कर सके । प्रत्युत डॉ० हेल्मुथ वॉन लगेसेनप्पने यही प्रगट स्वीकार किया है, जैसे कि हम पहिले देख चुके हैं कि जैनधर्मके 'मूल तत्वोंमें कोई स्पष्ट फर्क हुआ, ऐसा माननेका कोई कारण नजर नहीं आता और इसलिये महावीरस्वामी के पहले भी जैन दर्शन था, ऐसी जैनोंकी