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भगवान पाच व महावीरजी। [३८१ (निनों, बोधिसत्वों) जैसे मिथिलाके राजा नि मे और अरिष्टनेमिके समान ही त्याग धर्म (Life of renunciation) पर अधिक जोर दिया था । यह विदित होता है कि महावीरने गृह त्यागकर उस संघका आश्रय लिया था जो पात्रके बताये हुये नियमों का पालन करता था। नाथवंशी क्षत्रियोंकी समूची संप्रदाय देखो उवामगदसाओ ६) अथवा महावीरनीके पितृगण तो अवश्य ही (आचारात २॥१५-१६) भगवान पार्श्वके संघके उपासक थे । इस अवस्थामें यह अनुमान करना सुगम है कि महावीरकी दृष्टि स्वभावतः पार्श्वसंघकी ओर गई होगी। ( हार्ट ऑफ जैनीज्म ४० ३१ ) प्रो. जैकोषाने पार्श्व और महावीर तीर्थकरोंके पारस्परिक सम्बन्धपर ठीक प्रकाश डाला है । (जैन सूत्र S. B. E भाग २४० १९-२२ भूमिका ) उनने ठीक ही कहा है कि पहले दो विभिन्न नर्गन्थ संघ थे, जिनके सिद्धान्तोंमें केवल 'चार व्रत' अथा 'चार निया' ही समान थे। और आखिर इसी भेदके कारण उपांत दो बड़े भेद हो गये थे । ' सामन्नफलसुत्त' नामक बौद्ध ग्रन्थमें जो सिद्धान्त महावीरका बताया गया है उसे मूलमें कमसे कम 'चातुयाम् संवर शब्दरूपमें तो अवश्य ही पावका बताना उक्त प्रो० सा०का ठोक है। इस सिद्धान्तमें बताया गया है कि महावीरजीके अनुपार मात्म-संयम, आत्म निग्रह और ध्यानं एकाग्रताका मार्ग 'चातुर्यामसंवर'में सीमित है। यह संवर पानीके व्यवहारसे विलग रहने, पापसे दूर रहने आदि रूप है।....प्रो बीस डे वेड्मने प्रो० कोबीके भावको समझा नहीं है, तब ही वह कहते हैं के 'उनके मतसे चार नियम पार्श्वके चार त थे। प्रो. जैकोबीने यह कहीं नहीं