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भगवान पार्थ व महावीरजी। [३७९ स्वामी भी सशरीरी परमात्मा और लासानी थे। हां, प्रत्येक तीर्थकरका संबंध होता है तो केवल इतना ही कि पूर्वागामी तीर्थ करकी शिष्यपरंपरा उपरान्तके तीर्थकरकी शरणमें स्वतः पहुंच जाती है। वह पूर्व तीर्थकरके पवित्र मुखसे परंपरीण यह सुन चुकती है कि आगामी अमुक तीर्थकर होंगे उनके द्वारा जैनधर्मका उद्योत पुनः होगा उसी अनुरूप उन तीर्थकरके शिष्य आगामी तीर्थकरके आगमनकी वाट जोहते रहते हैं। उनके आगमनके साथ ही वे उनकी शरणमें पहुंच जाते हैं । प्राकृत एक तीर्थकरके समागमसे विलग होकर वे दूसरे तीर्थकरके ममागममें पहुंचनेके उत्सुक रहते हैं। उनके लिये यह आवश्यक नहीं होता है कि वे अलग बने रहें । उनको तो तीर्थकर भगवान के आमनकी उत्कण्ठा रहती है और उसी अनुरूप वे उनकी शरण मे स्वतः ही पहुंच जाते हैं। भगवान पार्श्वनाथ और महावीर स्वामीके विषयमें भी यही हुआ था। पार्श्व भगवानसे ८३७५० वर्ष पहले श्री नेमनाथ स्वामीने, नो २२वें तीर्थकर थे, अपनी दिव्यध्वनिसे यह बतला दिया था कि आगामी इतने२ अन्तरालकालसे पार्श्व और वईमान नामक दो तीर्थकर और होंगे। साथ ही उनने इन तीर्थ- - करोंकी खासर जीवन घटनाओंको भी बता दिया था । यही बात भगवान् महावीरजीके सम्बन्धमें हुई थी। भगवान् पार्श्वनाथजीके मुखारबिंदसे लोगोंको मालूम पड़ गया था कि अंतिम तीर्थंकर भगवान् महावीरस्वामी द्वारा एकवार जैनधर्मका उद्योत होना और शेष : है। जिस तरह भगवान महावीरके उपदेश अनुसार अाज हमको
१-हरिवंशपुराण पृ० ५६६-५७६ । ।
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