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भगवानका निर्वाणलाभ! हृदयोंमें मोदभाव छारहा था । सबही प्रसन्न हुये मीठे २ राग अलाप रहे थे ! शुक्लपक्ष अपनी विमलताका परिचय देरहा था। मानों स्पष्ट ही कह रहा था कि मैं सार्थक नाम हूं। जैसा मेरा नाम है वैसा मेरा काम है। शुक्लभावोंका पूर्ण प्रार्दुभाव मेरे ही शुक्ल आलोकमें होसक्ता है। मेरे ही धवलरूपका साथी इस विशाखा नक्षत्रमें आज अपना वैभव दिखला सक्ता है । आजका दिन ही इस पुनीत संसर्गसे हमेशाके लिये पवित्र और पावन बन गया है। वह देखिये प्राकृत संकेतोंको पाकर इस दिव्य अवसर पर स्वर्गलोकके देवगण भी आ रहे हैं । इन्द्र-इन्द्राणी और देव देवाङ्गनायें अपने २ विमानोंमें बैठे हुये जयजयकार करते हुये चले आरहे हैं। सब ही पुलकितबदन होरहे हैं। इधर पृथ्वीपर देखिये तो सब ही राजा-महाराना, सेठ और साहूकार प्रसन्नतापूर्वक भगवान पार्श्वनाथकी विरदावलि गाते बढ़े चले आरहे हैं । पशु-पक्षी और वृक्ष • लतायें भी प्रफुलत हुये दृष्टि पड़रहे हैं। जरा और ननर पसारिये, देखिये । दिशायें निर्मल होगई हैं-भव्य शैल महामनोहर दीख रहा है। यह श्रावण शुक्ला सप्तमीका दिवस ही अनुपम है।
भला यह दिवप्त अनुपम क्यों है ? इस रोज इन्द्र और देव, राजा और प्रजा कब और क्यों आनन्द मनाने आये थे ? आये थे तो कहां आये थे ? इन सब प्रश्नोंका समाधान भगवान पार्श्वनाथजीके शेष जीवनपर नजर डालनेसे हल होनाता है। शास्त्रोंमें बतलाया गया है कि भगवान पार्श्वनाथजीने विहार और धर्मप्रचारमें पांच महीने कम सत्तर वर्ष व्यतीत किये थे । उपरान्त वे श्रीसम्मेदाचल पर्वतकी परमोच्च शिखरपर आनकर विराजमान हुये थे ।