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३६६] भगवान पार्श्वनाथ । सलाहसे यह विषय विचारकोटिमें पड़ गया। उस रोज़ कुछ निश्चय न हुआ। कोतवाल उसे अपने घर लेआया और उसकी खूब अच्छी तरह मरम्मत की । परन्तु उसने तब भी चोरी करना न कबूला । दूसरे रोज़ रानसभामें उसी कोढ़ीको कोतवाल फिर लेगये
और राजासे बोले-“महाराज, यही पक्का चोर है ।" किन्तु कोढ़ोने फिर भी इन्कार किया ! ___आखिर राजाने उसको अभयदान देकर पूंछा कि तू सच्चा हाल बतादे-हम तेरा अपराध क्षमा कर देगें । इसतरह रानासे जीवदान पाकर उस कोढ़ीने चोरी करना कबूल करली । वह बोला-'राजाधिराज' अपराध क्षमा हो । मैं ही वास्तवमें चोर हूं।' राजा यह सुनकर चकित होगया । उनने पूछा कि 'इतनी विकट मार सहते रहने पर भी तूने यह बात नहीं कबूली! तू बड़ा साहसी है, तूने कैसे यह वेदना सहली ?' उसने कहा कि-'महारान, मैंने एक मुनिरानके मुखसे नर्कोके दुःखों का वर्णन सुना था । सो मुझे निश्चय था कि इस वेदनासे कहीं अधिक बेदना तों मैं पहले अनेक वार नों में भुगत चुका हूं। वहीं भयभीत न हुआ तो इस वेदनासे विचलित होना फिजूल है ।' राजा यह उत्तर सुनकर बड़े हर्षित हुए । उनने उसे वर दान दिया; पर उस चोरने आप कुछ भी न मांगकर यमदण्ड कोतवालको ही सब कुछ देनेकी प्रार्थना की ! यह देखकर राना और भी अचंभेमें पड़ गया ! उनने उससे पूछा कि यमदण्ड तो तेरा बैरी है-तू उसे मित्र मानकर प्रेमका व्यवहार कैसे कर रहा हैं ? वह चोर बोला-'महाराज, यह मेरे मित्र ही हैं। इसका खुलासा यूं है सो सुनिये-दक्षिणके आभीर प्रान्तमें