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३६४] भगवान पार्श्वनाथ । करके लजा रहे हो ! तुम्हें ऐसे नीच कार्य करना क्या उचित हैं ? इन कार्योंसे वेषकी निन्दा और तुम्हारी आत्माका अहित होता है। तुम्हें ऐसे दुष्कार्योंकी बदौलत कुगतियोंका ही वास मिलेगा ! शास्त्रकारोंने तो स्पष्ट ही कह दिया है कि:
'ये कृत्वा पातकं पापाः पोषयन्ति स्वकं भुवि । सक्त्वा न्यायक्रमं तेषां महादुःखं भवार्णवे ॥"
अर्थात्-"जो पापी लोग न्यायमार्गको छोड़कर और पापके द्वारा अपना निर्वाह करते हैं, वे संसार-समुद्रमें अनन्तकाल दुःख भोगते हैं।" याद रक्खो कि अनीतिको गृहण करने और अधिक तृष्णा रखनेसे जल्दी ही नाशके गर्त में जाना पड़ता है । इस अमूल्य नर जन्मको पाकर बर्बाद न कर दो। कुछ आत्महित करलो।' इसप्रकारे शिक्षा देकर जिनेन्द्रभक्त सेठने उस क्षुल्लकको अपने स्थानसे अलग कर दिया !
भगवान् पार्श्वनाथजीके तीर्थमें हुये यह जिनेन्द्रभक्त सेठका चरित्र है। धर्मात्मा पुरुषोंको कैसा आदर्श जीवन व्यतीत करना चाहिए, यह उनके व्यवहारसे स्पष्ट है । अपराधी पर भी रोष न करना-पापीसे घृणा न करना-यह उनके आदर्शसे प्रगट है । पापसे दूर रहनेका वह उपदेश दे रहे हैं। धर्मात्मा साधुजनके भेषका आश्रय लेकर जो पाखंड़ी पुरुष स्वयं धर्मको बदनाम करते हैं, उनके प्रति श्रावकोंका क्या कर्तव्य होना चाहिये, यह भी जिनेन्द्रभक्त सेठके उक्त उदाहरणसे स्पष्ट है । अंधश्रद्धाके वशवर्ती होकर पाखंडी लोगोंको धर्मापवाद करने देना भला धर्म हो ही कैसे सक्ता है ?