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जिनेन्द्रभक्त सेठ । [३६३ तस्करने ठगनेका पूरा इरादा कर लिया ! वह झटसे क्षुल्लक बन गया और सेठनीके नगरमें जा पहुंचा। वह रत्नके लालचसे व्रत उपवास आदि भी करने लगा ! सेठजीने धर्मात्मा क्षुल्लकका आगमन ज्योंही सुना त्योंही वे उसकी वन्दनाको गये ! क्षुलुकका क्षीणशरीर देखकर सेठजीकी श्रद्धा उसपर होगई। उनने क्षुल्लकको प्रणाम किया और वह उसको अपने महल लिवालाये। सच है कि
'अहो धूर्तस्य धूर्त्तत्वं लक्ष्यते केन भूतले ।
यस्य प्रपञ्चतो गाढं विद्वान्सश्चापि वंचिताः॥
अर्थात्-"जिनकी धूर्ततासे अच्छे२ विद्वान् भी ठगा जाते हैं, तब बेचारे साधारण पुरुषों की क्या मनाल जो उनकी धूर्तताका पता पासकें।" ऐसे ही धूर्त साधुजनोंको बदनाम करते हैं !
क्षुल्लकनी महलमें पहुंचकर उस मणिको ले उड़नेकी ताकमें थे ! रात आते ही उनका दांव लग गया। वे मणिको लेकर महलके बाहिर हो चलते बने; पर अभाग्यसे मार्ग में कोतवालने उनको पकड़ लिया ! वह ज्यों त्योंकर आखिर जिनेन्द्रभक्त सेठकी शरण आये ! सेठ धर्मात्मा थे, वे अपराधी पर भी क्षमा करना जानते थे। उनने क्षुल्लकके दुष्कर्मकी ओर दृष्टिपात भी नहीं किया ! प्रत्युत कोतवालके सिपाहियोंको ही डांट दिया कि वृथा ही तुम एक तपस्वीको चोर बतलाते हो । इस रत्नको तो यह मेरे कहनेसे लाये हैं। यह बड़े अच्छे साधु हैं। मिनेन्द्रभक्तके यह वचन सुनकर सिपाही लोग तो नमस्कार कर चलते बने, और सेठजी उन क्षुल्लक महाशयको एकान्त स्थानमें लेजाकर कहने लगे कि-'यह बड़े दुःखकी बात है कि तुम ऐसे पवित्र वेषको धारण करके उसे नीच कर्म
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