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महाराजा करकण्डु |
[ ३५७ गई ।' फिर वे और रानियोंको लेकर चंपापुर पहुंच गये और वहां आनन्दसे राज्य करने लगे !
एक रोज बनपालने आकर राजदरबार में खबर की कि महाराज, बिना ऋतुके ही सारी फुलवारी फल फूल गई है । उद्यान में ज्ञानवान श्री शीलगुप्त नामक मुनिराजका आगमन हुआ है । बनपालके मुखसे यह शुभ समाचार सुनकर करकंडुने बड़े हर्षभाभावसे मुनिराजको परोक्ष नमस्कार किया और फिर वह सपरिवार मुनिवन्दना के लिये गये ! मार्गमें जाते हुये उनने एक दुःखिया स्त्रीको विलख विलखकर रोते देखा । ( एहणारि बरहि किं रुवएं, विलवंती हियवइ दुहु करहं ) सो उसने इसका कारण पूछा ! लोगोंने कहा कि महाराज, इसके पुत्रका जन्म हुआ था । उसे अकाल में ही मृत्युके मुखमें जाना पड़ा है । इसीलिये यह स्त्री रो रही है । यथाउप्पण्णउ णंदणु विहिवसेण, सो णीयउ आयहि वइवसेण । तें रुबइ सदुरकर महिलएह, अप्पणिउ धल्लइवद्धदयेह ॥
यह सुनते ही करकंडुके नेत्रोंके अगाड़ी संसारका वास्तविक रूप खिंच गया ! वह इसके क्षणिक रूपको देखकर भयभीत हो गए ! उनके हृदय में वैराग्य उदय होगया । आपा - परका भेद
'जहि
१–‘करकण्डु तहतउणीसरिउ, गउ सम्मु हु तेरापट्टण हो । सुन्दरि मयणावलि हरिय, सम्पत्तउ तंपए सुववण हो ॥१९॥ ' 'गउ चम्पइ साहिविगहि णिवई, सो रज्जु करन्तउ बहुय दिई ॥ २ - चम्पाहि उबुहयण वेठियउ मुहलीलई अछइ जावतहि; ता आयड ऊज्जाणाहिवई अत्थाणिविउराउ जहिं ।" " धम्मालउसंजम णिलउमाइ-किं जिणवरूमाण वेसेंणराइ । तर्हि आयउ मुणिवर णाणजुत, णामेण सिद्धउ सीत्तु ॥" 'करकंडु सुणेविणुत्तं वयणु सत्याणजो अट्ठिउतारयणेण ।'