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भगवान् पार्श्वनाथ ।
दृष्टि पड़ गया ! ( तं सुणिंवि वयणु रायाहि राउ- संसार होउवरि विरत्त भाउ ) वह राजाधिराज इन्हीं शुभ भावोंको लिये हुये नंदन- वन में पहुंच गये । ( संपत्त उणंदणु तण भमहु ) वहां उन्होंने भक्ति - भावसे उन मुनींद्र की वंदनाकी और संस्तुतिकी थी । जैनाचार्य यही कहते हैं: -
' भामरेति देविणु थुइ करेवि । पुणु चरण दामलजुबलउसरेवि || जय तिमिर बिणासण खरदिणिंद । पय पाडिय पई सुरणार फणिंद || जय माण महागिरि वज्ज दण्ड | जय णिरुममोक्खहो भरिय कुण्ड | जय मोह बिडवि छिंदणकुट्ठार | जय चउगर सायर तरण पार ॥ तुहुं दूरि णमंत हं हरीहपाऊँ । जहं दियरु तम फेडण सहाऊं ।। यह सुमर अणुदिणु जो मणेण । सो सिवपुरि पावइ तरकणेण || कमकमलइ वंदिवि मुणिवसु । ऊवविउ अग्गे एतवधरासु । सो भणइ भडारा हरिय छम्मु । महो कोविपयासहि परम धम्मु ||'
करकंदु मुनिराजकी विनय करके उनके सामने बैठ गया और तब उन कृपालु भट्टारकने परम सुखकारी धर्मका उपदेश दिया, जिसको सुनकर सबके हृदय प्रसन्न होगये । उपरांत सबने अपने २ पूर्वभव उन महाराजके मुखारविन्दसे सुने । उससे उनने जाना कि - कुंतल देश के तेरपुर नगर में पहले एक ग्वाला था । उसने बड़े प्रेम और भक्तिभावसे एक हजार पांखुरीवाले कमलसे श्री जिनेन्द्रदेवकी पूजा की थी और आयुके अन्तमें शुभभावोंसे मरकर वही ग्वालाका जीव राजाधिराज करकंडु हुए ! अगाड़ी उनने जाना कि श्रावस्ती नगरीमें (भरहि अत्थि सावत्थिपुर ) सागरदत्त सेठ और नागदत्ता