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३५६] भगवान् पार्श्वनाथ । बड़े आदरसे अपने यहां लिवाले गया था और शुभलग्नमें अपनी पुत्रीका विवाह उनसे करदिया था। (वेवाहु कियउलहुताहूकेवि) करकंडु यहां नववधूके साथ कुछ दिन रहकर अन्यत्र चले गये थे। और विद्याधर कन्या आदिके साथ विवाह करके घूमते फिरते द्राविडदेशमें चोल, चेरम, पाण्ड्य आदिके राजाओंके सन्मुख जा डटे थे। यहां घोर युद्ध हुआ था और आखिर इन राजाओंको करकंडुसे परास्त होना पड़ा था। जिस समय करकंडु इनके मुकुटोंको पैरोंसे कुचलता अगाडी बढ़ रहा था, तो उसने उनमें जिनप्रतिमा
ओंको बना देखा । उनको देखते ही वही स्थंभित होगया। उसने समझा यह बड़ा अनर्थ हो गया ! अपने साधर्मी भाइयोंको मैंने वृथा ही कष्ट दिया । वह बहुत ही दुःख करने लगा और उसने उनसे क्षमायाचना करके मैत्री करली ! वात्सल्यप्रेमका यह अनूठा चित्र है ! श्रावकोंमें गऊवत्सवत् प्रेम होना चाहिये, इसका यह एक नमूना है ! आजके श्रावकोंको मानों वात्सल्यभाव धारण करनेका प्रगट उपदेश देरहा है-कह रहा है कि जैनी जैनीमें परस्पर भेद नहीं होना चाहिये । उनको परस्पर मिलकर रहना चाहिये ! करकंडु महाराजका यह आदर्श कार्य सर्वथा अनुकरणीय है !
करकंडु महाराजने उन राजाओंसे विदा होकर तेरापट्टनको प्रयाण किया । वहांपर उनकी मदनावली रानी उनसे आकर मिल
१-तहिं अत्थि विकितिय दिणसराउ-संचल्लिउ ता करकंडु राउ । ता दिविड़देसमहि अलु भमंतु-संपत्तउं तहिं मछरुव हंतु । तहिं चौड़े चोर पंडिय णिवांह. केणाविखणद्वे ते मिलीयाहि । २-करकंडएं धरियाते विरणे, सिरमउड़ मलिय चरणेहिं तहो मउड़ महिं देखिवि जिणपडिम, करकंडवोजायउ वहुलु दुहु ॥ १८ ॥