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भगवान पार्श्वनाथ । वह कहने लगा कि 'पहले विजयाईकी दक्षिण श्रेणीके रथनूपुर नगरमें नील और महानील नामके विद्याधरराजा थे। वे राजभ्रष्ट होकर यहां तेरपुरमें आकर राज्य करने लगे थे। उन्होंने ही पार्श्वनाथनीको उत्सर्गीकत यह गुफा और उनकी प्रतिमा बनवाई थीं। यह दोनों राजा उपरान्त तपस्या करके स्वर्गगामी हुये थे। इनके बाद नभस्तिलकपुरके राना अमितवेग और सुवेगने आर्यखडके जिनालयोंकी वंदना करते हुये मलयगिरिपर रावणके बनवाये हुये जिनमंदिरोंके दर्शन किये थे। वहीं भ्रमण करते हुये इन्हें भगवान् पार्श्वनाथजीकी रत्नमई प्रतिमा मिली थी। वे उसको एक मंजूषामें रखकर लेचले थे कि एक जगह मार्गमें उसे रक्खा
और फिर वह उसको वहांसे नहीं उठा सके थे । अतएव उन्होंने तेरपुर जाकर एक अवधिज्ञानी मुनिसे इसका कारण पूंछा; जिससे मालूम हुआ कि सुवेग आयु पूरीकर जन्मान्तरमें वहीं हाथी
१-तहिं अत्थि णयरु खेयरष मालु-णामे रहणेउरु चक्ववालु। तहिं खेयर भायर अत्थिनेवि-णामेण णीलमहणीलतेवि । धवितेराणयरु आय तहिं, थाइवकीपउ रज्जु भब् । २-कह पासजिणिंदहोदरियणासि, सुएयक्वहिदिणमुणिवर हो पासि ।मणिरयणहिं मणि णिम्माविप्पहिं, किउट्ठाउतेहिंजिण पडिमप्पहं । ३-बेवदहे उत्तरदिसहिं णयह अत्यहिं वे विभाय अण्णोणणिडिउ संबंद्ध सम ससिकेत दिवायर पउर धाम । ते अमीयवेयसुव्वेपणाम । सुनिसुद्ध सील संगो अहंग, पम्मतुरयणपरिभूतियंग । ते पन्विदिवंहिवंदणकरंति, सचल्लिय एकहिं दिणेमहंत । दख्णिदिसिलंकहिं जंतएहिं, मलयम्मिविसई तादिट्ठ तेहिं । सिरिपूदीणामेगिरिवरिदु. जहिंकोलणुछु आवइ सुरिंदु । तहोउवरि खणेद्धविड़ीय, णंसग्गहो सुरवइ परिवडिय । धत्ता-ते पेखिविछुहपकयधवलु, चउवीस जिनालय गयगयणु; तं पेखिवि हरिसहिं तहिं * जिपय, विणिवारिक्दूरहो जेहिं मग्रणु ॥ ४ ॥