________________
५
मक्खलिगोशाल, मौद्गलायन प्रभृति शेष शिष्य । [ ३३१ ही बौद्धधर्मका प्रवर्तक कहा जाय तो कुछ अत्युक्ति नहीं है । इस दशामें यह स्पष्ट है कि जैनाचार्य भी उन्हीं मौद्गलायनका उल्लेख कररहे हैं; जिनके गुरु संजय बताये गये हैं और जब स्वयं मौनलायन जैन मुनि थे, तो उसके गुरु भी जैन मुनि होना चाहिये । सौभाग्य से इनके गुरु संजयका जैन मुनि होना अन्यरूपमें भी प्रमाणित है । और यह संजय एवं जैन शास्त्र के चारण ऋद्धिधारी मुनि संजय संभवतः एक ही व्यक्ति हैं । पहले संजयकी शिक्षायें जो बौद्ध शास्त्रों में अंकित है वह जैनियों के स्याद्वाद सिद्धांतकी विकृत रूपान्तर ही हैं । इससे इस बातका समर्थन होता है कि स्याद्वाद सिद्धांत भगवान महावीर से पहले का है, जैसे कि जैनियोंकी मान्यता है और उसको संजयने पार्श्वनाथजीकी शिष्य परंपराके किसी मुनिसे सीखा था; परन्तु वह उसको ठीक तौर से न समझ सका और विकृत रूपमें ही उसकी घोषणा करता रहा । जैन शास्त्र भी अस्पष्ट रूपमें इसी बात का उल्लेख करते हैं, अर्थात् वह कहते हैं कि संजयको शङ्कायें थीं जो भगवान महावीर के दर्शन करने से दूर होगई ! यदि यह बात इस तरह से नहीं थी तो फिर भगवान महावीर और म० बुद्धके समय के इतने प्रख्यात् मतप्रवर्तकका क्या हुआ, यह क्यों नहीं विदित होता ? इसलिए हम जैन मान्यताको विश्वसनीय पाते हैं और देखते हैं कि संजय अथवा संजय वैरत्थीपुत्र जो मौद्गलायनके गुरु थे, वह जैन मुनि संजय ही थे । दूसरी ओर इस व्याख्याकी पुष्टि इस तरह भी होती है
१ - समन्नफलमुत्त' "डायोलॉग्स आफ बुद्ध" ( S. B. B. II) २- महावस्तु भाग ३ पृ० ५९.