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भगवानका धर्मोपदेश !
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गम होजाता है । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र रूप ही मोक्षका मार्ग है । इस मार्गका अनुसरण करके जीवात्मा अपनेको कर्मो के फन्दे से छुड़ा लेता है । गत जन्मोंमें किये हुये कर्मोंको वह क्रमकर नष्ट कर देता है और आगामी ध्यान - ज्ञानकी उच्चतम दशामें पहुंच कर उनके आनेका द्वार मूंद देता है । फिर वह अपने रूपको पा लेता है । जो वह है सो ही बन जाता है । जीवात्माकी आत्मोन्नति के लिहाज से ही भगवानने उसके लिये चौदह दर्जे बताये हैं, जिनको गुणस्थान कहते हैं । मोहनीय कर्म और मन, बचन, कायकी क्रियारूप योगके निमित्तसे जो आत्मीक भाव उत्पन्न होते हैं, उन्हींको गुणस्थान कहते हैं । जितने २ ही यह भाव आत्माके शुद्ध स्वरूपकी ओर बढ़ते जाते हैं उतने २ ही जीवात्मा आत्मोन्नति करता हुआ गुणस्थानों में बढ़ता जाता है । यह चौदह गुणस्थान क्रमकर मिथ्यात्त्व, सासादन, मिश्र, अविरतसम्यक्त्व, देशसंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसांपराय, उपशांतमोह, क्षीणमोह, सयोगकेवली और अयोगकेवली रूप हैं । इनमें से पहले के पांच गुणस्थानोंको पुरुष, स्त्री, गृहस्थ और श्रावक समान रीतिसे धारण कर सक्ते हैं । ग्यारहवीं उद्दिष्टत्याग प्रतिमा पर्यंत, जिसमें गृह त्यागी व्यक्ति के पास केवल लंगोटी मात्रका परिग्रह होता है, श्रावक ही संज्ञा है। इस ग्यारहवीं प्रतिमापर्यंत स्त्रियां भी श्रावकके व्रत पाल सक्तीं हैं । शेषमें छठे गुण1 स्थानके उपरांत सब ही गुणस्थानों का पालन तिलतुष मात्र परिग्रह तके त्यागी निथ मुनि ही कर पाते हैं । इन गुणस्थानोंका स्वरूप संक्षेप में इस तरह समझना चाहिये
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