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धर्मोपदेशका प्रभाव । [२९३ परिगणित करते हैं । यह भगवान पार्श्वनाथके प्रभावको स्पष्ट करता है।
पिप्पलादने स्वामकी परमोच्च ध्यानमग्न अवस्थामें पहुंचकर आत्माका ‘पर अक्षर आत्मा' अर्थात् परमात्मा होनाना भी स्वीकार किया है। जिस समय स्वप्नमग्न दशामें सब संकल्प-विकल्प थम जाते हैं और आत्मा परमात्म-दशा (Divine State)को प्राप्त होनाता है। इसलिये उसने सबका उद्देश्य एक परमात्मा माना था, जो उसके निकट अशरीरी, अवर्णी और प्रकाशमान है। वह यह भी कहता है कि जो कोई उस परमात्माको जान लेता है वह सर्वज्ञ होनाता है। यहां बिल्कुल ही भगवान पार्श्वनाथनीके सिद्धान्तकी नकल की गई है। सचमुच शुरूसे आखिर तक पिप्पलाद जीवात्माको अपने ही बलसे परमात्म पद प्राप्त करनेको स्पष्ट करनेके लिए प्रयत्न करता नजर आता है। उसने पुरातन वैदिक धर्मको भगवानके धर्मोपदेशसे सदृशता लानेके लिये जाहिरा प्रयत्न किया था और यह इसीलिये आवश्यक था कि भगवान् पार्श्वनाथनीका धर्मोपदेश उससमय बहु प्रचलित होरहा था !
पिप्पलादके साथ ही दूसरे प्रख्यात् ब्राह्मण ऋषि भारद्वाज हमें मिलते हैं, जिनका सिद्धान्त 'मुण्डकोपनिषद्'में गर्भित है। इनका अस्तित्व भी बौद्ध धर्मकी उत्पत्तिसे पहले अर्थात् भगवान् पार्श्वनाथ नीके तीर्थमें एक स्वतंत्र ‘मुण्डक' संप्रदायके नेता रूपमें मिलता है । बौद्धोंके 'अङ्गुतरनिकाय में इनके मतकी गणना 'मुण्डकसावक' के नामसे एक अलग संप्रदायमें की गई है । जैन राजवा
१-पूर्व० पृ. २३६ । २-पूर्व० पृ० २३९-२४० । ३-डॉयलॉग्स ऑफ दी बुद्ध, भाग २ पृ. २२० ।