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धर्मोपदेशका प्रभाव । [२९७ मुण्डकोपनिषदके ऋषियों ने अपने विचार जैनसिद्धान्तसे लिये थे। वह 'मुण्डकोपनिषद के कर्ताका नाम भारद्वाजके स्थानपर अंगरिस बतलाते हैं। संभव है कि अंगरिसका गोत्र भारद्वाज हो और उसी अपेक्षा डा० बारुआने उनका उच्छेख उक्तप्रकार किया हो । डा० सा० अंगरिसकी मान्यताको जैनधर्मानुसार बताते हैं; जैसे वह लोककी आकृतिको पुरुषाकार मानता था और इस पुरुषरूपी लोकके मध्य भागमें मनुष्यलोक; इसके ऊपरवाले हिस्सेमें ब्रह्म स्वर्गलोक और ब्रह्म स्वर्गलोकसे ऊपर 'परमं साम्यम्' अर्थात् मुक्तिस्थान मानता था। वह कहता था कि जो मनुष्य यहां बहुत अच्छे २ काम करके विशेष पुण्य संचय करता है, वह मनुष्य सूर्य होकर ब्रह्मलोकमें जन्म लेता है और वहां उत्तम भोगोपभोग भोगता हुआ शुद्ध आनन्दमें जीवन व्यतीत करता है। किन्तु ब्रह्मलोकको प्राप्त हुआ आत्मा जबतक इच्छा रहित नहीं होता है और पूर्व संचित कर्म अवशेष रहता है, तबतक उसकी मुक्ति नहीं होती, उसे संसारमें फिर आना पड़ता है। अंगारिसको दृढ़ विश्वास था कि जबतक आत्मा रागद्वेष रहित नहीं होत , तबतक उसे अवश्य संसारमें रहना पड़ेगा; फिर वह वेदोंमें बताई हुई सारी क्रियायों को भले ही करे ! किन्तु इसके साथ ही वह कहता था कि जिस व्यक्तिका आत्मा कर्मोकी निर्जरा कर डालता है और रागद्वेष रहित व पवित्र होता है; तथा जो सदा तपस्या करता हुआ एकान्तमें रहता है व जीवनयापन भिक्षासे करता है और जिसके पास सम्यज्ञान है, वह आत्मा मुक्तिलाम करता है। वहांसे वह कभी लौटकर नहीं आता। -- अंगारिसकी इन मान्यताओं का सादृश्य जैनधर्ममें निर्णित