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भगवान पार्श्वनाथ |
इस सेवा मार्ग से विमुख नहीं थीं । कोमलांगी रमणीरत्नोंने अपने वासना विलासको उठाकर एक तरफ रख दिया था । ज्ञान अंजनसे उन्होंने अपने दिव्यचक्षुओं को प्रभामई बना लिया था । गृहकुटुम्बका ममत्व उनकी 'बसुधैव कुटुम्बकम्' की नीतिमें बाधक नहीं था । वह स्वयं संयमी जीवन व्यतीत करती हुई अपना आत्मकल्याण करतीं थीं और देश में सर्वत्र विहार करती हुई विद्वानोंसे शास्त्रार्थ करतीं और जनताको धर्मामृत का पान करातीं थीं । वह रमणीरत्न थीं सारे संसार के लिये आदर्शरूप थीं। इन्हींके साथ श्वेत वस्त्रोंको धारण करनेवाले उदासीन गृहत्यागी श्रावक और श्राविकायें भी अपनी शक्तिके अनुसार धर्मप्रभावनाके कार्य में संलग्न थे। इन सबके विषयमें श्री गुणभद्राचार्यजी कहते हैं कि:
" सुलोचनाद्याः षट् त्रिंशत्सहस्राण्यायिका विभोः । श्रावका लक्षमेकंतु त्रिगुणाः श्राविकारतः || १५३।।” अर्थात् - 'उन भगवान् के समवशरण में सुलोचनाको आदि लेकर छत्तीसहजार अर्जिकाएं थीं, एकलाख श्रावक थे और तीनलाख श्राविकायें थीं ।" यह सब ही अपना आत्मकल्याण करते सर्वत्र भगवान् के साथ रहकर धर्मका उद्योत करते थे । इनके अतिरिक्त अनेकों राजा, सेठ और देव - देवियां भगवान् के साधारण भक्त थे । इनमें मुख्य भगवान् के माता-पिता थे, वे इन तीर्थंकर भगवान के
श्रद्धानी होकर उनके शासनका यश फैलाने में दत्तचित्त थे । यही बात श्री वादिराजसूरिजी इन शब्दों में प्रकट करते हैं:राजा पुनः स जिनभक्ति भरावनम्रः,
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प्रोच्य कैरराज्यपदमंडितमण्डलश्रीः ।