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भगवान पार्श्वनाथ । उसकी मानता थी, वह भी भगवान् पार्श्वनाथके उपदेशसे सहशता रखती है । उसका मत था कि 'असत्तासे कुछ भी उत्पन्न नहीं होता और जो है उसका नाश नहीं होता ।' भगवान पार्श्वनाथने भी लोकके पदार्थोका ऐसा ही स्वरूप बतलाया था; जिसको उनके उपरान्त कात्यायन विकृतरूप देता प्रतीत होता है । इन्हीं तत्वोंके अनुरूप उसने पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, सुख, दुख और जीव यह सात तत्व स्वीकार किये थे। वह इन्हीं सातके मिलने
और विछुड़नेसे जीवन व्यवहार मानता था। तत्वोंकी संख्या ठीक सात मानना भी उस समय भगवान् पार्श्वनाथके बताए हुये सात तत्वोंकी प्रधानताका ही द्योतक है; वरन् उनकी ठीक सात संख्या मानना आवश्यक न थी। इन तत्वों का मिलन वह सुखतत्वके कारण और विच्छेद दुखतत्वके हेतुसे बतलाता था। इस अवस्थामें वह इनका पारस्परिक प्रभाव एक दूसरेपर पड़ता स्वीकार नहीं करता था, जिससे किसी व्यक्तिको खास नुकसान पहुंचाना भी मुश्किल था। इसलिये उसके निकट किप्ती जीवको मारना कुछ विशेष महत्व न रखकर केवल व्यवस्थित तत्वोंको अलग कर देना था, जिसमें पाप-पुण्यका भय ही नहीं था । सचमुच प्रतरदन, नचिकेतसद और पूर्णकाश्यपका भी ऐसा ही विश्वास था । भगवद्गीतामें भी यह भाव प्रगट किया गया है । आत्माको अमर मानते हुये उसके मूल भावमें यह उद्गार कहे प्रतीत होते हैं, पर
१-सूत्रकृताङ्ग २।१।२२ । २-जैनसूत्र (S. B. E.) भाग २ भूमिका XXIV. ३-प्री० बुद्धि० इन्डि० फिला० पृ० २८६ । ४-गीता २।१६-२४ ।