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धर्मोपदेशका प्रभाव । [२९५ गणना जैन संप्रदायके अंतर्गत ही अनुमान की है। साथ ही जब हम इनके सिद्धान्तोंगर दृष्टे डालते हैं तो वहां भगवान् पार्श्वनाथके धर्मोपदेशका प्रभाव पड़ा हुआ पाते हैं । ____भारद्वाजने पहले ही परमात्मा अर्थात् ब्रह्म को गोत्ररहित और वर्णहीन ( अगोत्रः अवर्णः ) माना था और इसतरह पर उसने भगवान् पार्श्वनाथनीके अनुसार ही धर्म में जाति और कुलमदका खुला प्रतिकार किया था। यद्यपि अधिकांश बातोंमें उसका मत याज्ञवल्क्य के समान था, पर उसने बहुतसी ब्राह्मण क्रियायों का विरोध किया था। उसने कहा था कि "आत्माकी प्राप्ति न केवल वेदोंसे, न केवल बुद्धिसे और न अधिक अध्ययन करनेसे हो सक्ती है, निसको अपना आपा (Self) चाहता है उसीसे उसकी प्राप्ति हो सक्ती है।....और न इसकी प्राप्ति उसको हो सक्ती है जो बलहीन, अविचारी और उचित ध्यानको नहीं करनेवाला है। यह तब ही संभव है जब एक बुद्धिमान पुरुष बलवान्, विचारवान् और ध्यानमग्न होकर इसके पानेका प्रयास करता है कि वह अपनेको ब्राह्मणकी संगतिमें पाता है ।” ( मुण्डकोपनिषद् ३।२१३-४ "नायम् आत्मा प्रवचनेन लभ्यो, न मेधया....नायम् आत्मा बलहीनेन लभ्यो, न च परमादात् तपसो वार्ष्यालविगात....एष आत्मा विशाते ब्रह्मधामा" ) भारद्वानने विद्या दो तरहकी मानी थी (१) पग और (२) अपरा । दूसरी अपराविद्या में उसने चार वेदों और छह वै देक ज्ञानोंको गृहण किया था और परा (Higher or Traus:ende.. १-डायोलॉग्स ऑफ दी बुद्ध, भाग २ पृ. २२१ । २-प्री-बुद्धिस्टिक इन्डि० फिलासफी पृ. २५३ ।