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धर्मोपदेशका प्रभाव |
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उसने पूछा था कि प्राणोंकी उत्पत्ति कहांसे है ? वह शरीर में कैसे आते हैं ? शरीरको छोड़ कैसे जाते हैं ? इसी सम्बन्धके उसने अनेक प्रश्न किये थे । पिप्पलादने इन प्रश्नोंको बहुत ही कठिन एक ' अतिप्रश्न ' बतलाये थे' तो भी यथाशक्ति उत्तर देते हुये उसने कहा था कि प्राणोंकी उत्पत्ति आत्मासे अथवा अपने निजी ·स्वाभाव (Inner cssence ) से होती है। जीवन में आत्मा उसी तरह है जिसतरह सूर्य में परछाई पड़ती है । ( 'आत्मना एषः प्राणो जायते । यथैव पुरुषे छाया एतस्मिन्नेतद् आततम् | प्रश्नोपनिषद् ३।३।') आत्मा सम्राट्वत् शरीरके मध्य हृदयमें रहता है जिससे शरीरकी १०१ नाड़ियां निकलती हैं। इन्हींके द्वारा आत्म-सम्राट अपनी आज्ञाओं की पूर्ति इतर भागोंसे कराता है । यह आत्मा शरीरको मृत्युसे छोड़ जाती है । मरण समय और शायद जन्मते - समय भी इंद्रियनित ज्ञान (Sense - faculties) मनमें केन्द्रीभूत रहता है | आत्मा इंद्रियजनित ज्ञानसे स्वतंत्र और ज्ञानमय होकर अपने पूर्व संकल्पित अच्छे, बुरे या मिश्रित लोक ( यथासंकल्पितम् लोकम् ) को जाता है । अपने ही प्रकाशसे वह मार्ग देखता है। और अपने प्राणोंकी शक्ति से यह लेजाया जाता है । आत्मा अथवा पुरुषको उसने शुद्ध उपयोगमई ( विज्ञानात्मा ) माना था किन्तु उसने अपने खास शब्दों को इतना अस्पष्ट कहा है कि उनका अर्थ लगाना भी मुश्किल है । तो भी उसने पुरुषके लिये प्राण, प्रकृतिके लिए रयी, व्यक्तके लिये मूर्त और अव्यक्तके लिए अमूर्त
१- प्री० बुद्धिस्टिक इन्डियन फिलासफी पृ० २३१-२३२ । २- पूर्व० पृ० २३२ । ३ - पूर्व० पृ० २३३ । ४- पूर्व० पृ० २३५ ।