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भगवान पार्श्वनाथ |
आदि शब्द बिल्कुल नये नये ही व्यवहृत किये थे।' इस सबका कारण भगवान् पार्श्वनाथ के धर्मोपदेशका दिगन्तव्यापी होना कहा जा सक्ता है क्योंकि भगवान् पार्श्वनाथने बतला दिया था कि निश्वयसे आत्माका निजस्वभाव - चेतना लक्षण ही प्राण है परन्तु व्यवहार अपेक्षा उनने इंद्रियादि दश प्राण बतला दिये थे, जिनका प्रादुर्भाव आत्मापर ही अवलंबित था और इसी भावको पिप्पलाद भी दर्शाने की कोशिष करता है, परन्तु वह अपनी असमर्थता पहले ही स्वीकार करलेता है । आत्माको जीवनमें परछाईं रूप अर्थात् पूर्ण व्यक्त न मानना भी ठीक है, क्योंकि भगवान पार्श्वनाथजीने लोगों को बतला दिया था कि सांसारिक जीवन में आत्मा अपने असली रूप में पूर्ण व्यक्त नहीं रहता है । मृत्यु समय आत्माका शरीरको छोड़कर अपने संकल्पित - निदान किये हुये स्थानपर जन्म लेते बतलाना भी एक तरह से ठीक है; परन्तु आत्माका शरीर के मध्य हृदय में बिराजमान रहते कहना आदि बातें उसकी निजी कल्पना है । हां, मरणोपरान्त मार्ग में आत्मा अपने ही बलसे जाता है यह ठीक है । उसके प्राणोंकी शक्ति पूर्वसंचित कर्म वर्गणाओं की सदृशता रखती हैं । वह प्राण, मूर्त, अमूर्त आदि नये शब्द व्यवहार में लारहा है, वह भी हमारे कथन के समर्थक हैं; क्योंकि यह शब्द जैन धर्म के खास शब्द (Technical Terms) हैं। अतएव पिप्पलादके इस सैद्धांतिक विवेचनसे यह स्पष्ट है कि उसने पुरातन वैदिक मन्तव्यों को भगवान् पार्श्वनाथ के धर्म के सादृश्य बनाने के लिये, उक्त प्रकार प्रयत्न किया था जिसको जैनाचार्य अज्ञान मिथ्यात्वमें १ - पूर्व ० पृ० २३३ ।