________________
२८४] भगवान पार्श्वनाथ । मनुष्यों के ही लिये नहीं बल्कि पशुओंतकके लिये खुला हुआ था। वह सबको त्राणदाता था, शांतिसाम्राज्यको सिरजनेवाला था। सचमुच वह थाः--
आदि अन्त आविरोध यथारथ, जो भाषत सब वस्तु विधानन। जो अनादि अज्ञान निवारत, जा समान हितहेत न आनन । 'जाको सुजस तिहूं जग व्यापत, इन्द्र अलापत तनननतानन भविकसन्दको सोभधार है, जो सब निगमागमको आनन ।।
घृमोपदेशका भाव 'यमीश्वरं वीक्ष्य विधूतकल्मषं,
तपोधनास्तेऽपि तथा बुभूषवः । वनौकसः स्वश्रमवन्ध्यबुद्धयः, शमोपदेश शरणं प्रपेदिरे ॥ १३४ ॥
श्री समन्तभद्राचार्यः । गहन गंभीर वनों में शीतलजलमयी सरिताओं के किनारे वानप्रस्थ ऋषियों के बड़े बड़े आश्रम थे । प्रतिदिवस बड़े समारोहके साथ वहां अग्निहोत्र विधान होता था। नरमेध, गौमेध आदिके नामसे जीवित प्राणियों के मूल्यमय प्राण बलिवेदीपर उत्सर्गीकृत किये जाते थे । स्वर्गसुखके लालच और पितृऋणके भयके कारण परावलम्बी बनी हुई जनता इस कार्यको हठात् कर रही थी। उधर स्वयं जटिलादि वानप्रस्थ ऋषिगण अपनी इंद्रियलिप्ताको अधिक सीमित नहीं रख सके थे । पुत्रमुखके दर्शन करना उनके निकट भी एक कर्तव्य था, यह सब कुछ हम पहले देख चुके हैं किन्तु भगवान्