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धर्मोपदेशका प्रभाव । [२८७ किया और उन सबने बड़े आदरसे श्री प्रदक्षिणा देकर उन (भगवान्) के दोनों चरणकमलों को प्रणाम किया ।"
(उत्तरपुराण ट० ५७८) यही बात उपरान्तके जैनाचार्य भी कहते हैं । सं० १४६४ में हुये श्री सकलकीर्तिनी भी लिखते हैं कि 'निनेन्द्ररूपी भानुके उदयके होते ही साधु, मुनिश्वरोंका संचार होगया था और जटिलादि कुलिंगी तापस जो थे वह तस्करोंके समान विलीन होगये थे ।' ('जिनभानूदये संचरं ति साधु मुनीश्वराः । तदा कुलिंगिनो मंदा नश्यति तस्करा इव ॥१७॥२३॥) सं० १६५४ में श्रीचंद्रकीर्ति द्वारा रचित पार्श्वचरितमें भी इस बातका समर्थन किया गया है। वहां लिखा है कि 'साधारण जनताने प्रसन्न भावसे भगवानके उपदेशामृतका पान किया था ।' (लोकाः प्रसन्नभावेन पीतार्हद्वाक्सुधारा ।) श्री चंद्रकीर्तिनीके समकालीन श्वेताम्बराचार्य श्री भावदेवमूरिने भी अपने "पार्श्वनाथचरित में अनेक मनुष्योंका भगवानके धर्मको ग्रहण करना लिखा है । (सर्ग ६, श्लो० २५६-२५७) अन्ततः कविवर श्रीभूधरदासजी भी भगवानके इस दिव्य प्रभावका उल्लेख निम्न प्रकार करते हैं:
"वचन किरनसौं मोहतम, मिट्यौ महा दुखदाय । वैरागे जगजीव बहु, काल लब्धि बल पाय । सम्यकदरसन आदस्यो, मुक्ति तरोवर मूल । संकादिक मल परिहरे, गई जन्मकी मूल ॥ तहां सातसै तापसी, करत कष्ट अज्ञान । देखि जिनेसुर संपदा, जग्यौ जथारथ ग्यान ॥